कभी कोचिंग संस्थान में तो कभी अस्पतालों में जानलेवा आग लगने की घटनाओं के बाद यह हादसा गुजरात सरकार की कार्यप्रणाली पर तो सवाल उठाता ही है, लापरवाही के सितम की नई कहानी भी कहता है। दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद रात को सोने के लिए भी खुले आसमान का सहारा लेने वालों की पीड़ा भी किसी को नजर नहीं आती। यह सवाल तो उठाया जा सकता है कि आखिर कोई भी सोने की जगह सड़कों के किनारे ही क्यों तलाशता है? लेकिन बड़ा सवाल सरकारों पर भी उठता है जो सर्दियों में रैन बसेरों के इंतजाम से लेकर बेघरों को घर देने के लंबे-चौड़े वादे करती हैं, लेकिन ये भी कागजों में ही ज्यादा नजर आते हैं। और, रही बात सड़क सुरक्षा की, ऐसा लगता है कि हमारे हाई-वे पर भारी वाहनों के रूप में दौड़ते इन चलते-फिरते यमदूतों पर भी अंकुश नहीं लग पा रहा। न तो ऐसे वाहनों की फिटनेस की जांच होती और न ही नशे में वाहन चलाने वालों के खिलाफ सख्ती।
गुजरात जैसे शराबबंदी वाले प्रदेश में भी यदि डंपर हादसे का कारण चालक का नशे में होना सामने आता है, तो और भी चिंता होनी चाहिए। चिंता इस बात की भी कि मोटर व्हीकल एक्ट के सख्त प्रावधान के बावजूद हादसे कम नहीं हो रहे। देश में सड़क हादसों में रोज औसतन 415 लोग मारे जा रहे हैं। सड़क सुरक्षा माह की शुरुआत करते हुए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी कहा है कि कोरोना महामारी से अब तक देश में डेढ़ लाख लोगों की जान गई, लेकिन सड़क हादसे में इससे ज्यादा जानें जा रही हैं।
किसी को एक अदद छत भी नसीब न हो, तो मजबूरियां फुटपाथ तक ले जाती हैं। लेकिन भारी-भरकम जुर्माने के बावजूद यदि यातायात नियमों का उल्लंघन होता है, तो उसे सिस्टम की कमजोरी ही कहा जाएगा। सड़क हादसों और इनमें होने वाली मौतों में वर्ष 2025 तक पचास फीसदी कम करने का लक्ष्य बनाने से काम नहीं चलेगा। जरूरत इस लक्ष्य के अनुरूप काम करने की है। बेहतर सड़कें, यातायात नियमों की पालना और लापरवाहों पर सख्ती से ही लक्ष्य तक पहुंचा जा सकेगा।