
UPSC exam
भारत सरकार अखिल भारतीय सेवाओं के लिए सर्विस व स्टेट काडर बांटने की व्यवस्था बदलने की तैयारी कर रही है। मंशा यह है कि इन सेवाओं के प्रशिक्षुओं के लिए चलने वाली फाउंडेशन कोर्स की अहमियत बढ़ाई जाए ताकि प्रशिक्षु इसे गंभीरता से पूरा करें। स्टेट काडर और सर्विस आवंटन में इस पाठ्यक्रम में अर्जित अंकों का महत्व बढ़ाया जा सकता है।
प्रश्न सामने यह रहना चाहिए कि क्या इस फाउंडेशन कोर्स की हमने पिछले ७० वर्षों में कभी गंभीरता से समीक्षा की है। फाउंडेशन यानी बुनियाद। क्या इस बुनियादी पाठ्यक्रम में हम प्रशासनिक, पुलिस व अन्य सेवाओं के प्रशिक्षुओं को इस तरह तैयार कर पा रहे हैं कि वह भारत के नागरिकों, यहां की संस्कृति, भूगोल और सामाजिक व्यवस्था को समझ कर सेवा-पर्यंत संवेदना के साथ कार्य कर सके। कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि आज अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों के कार्य करने का तरीका, उस परिकल्पना के आस पास भी नजर नहीं आता जो संविधान-निर्माताओं और प्रथम गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने की थी।
अन्य नियम-कानूनों की तरह हमारी अखिल भारतीय सेवाएं भी ब्रिटिश सरकार से प्रभावित रही हैं। उस समय की इम्पीरियल सर्विस के अधीन चलने वाली भारतीय सिविल सेवा और भारतीय पुलिस आजादी के बाद भारतीय प्रशासनिक व पुलिस सेवा में बदल गई। हमने इन सेवाओं के अंग्रेजी तौर-तरीके, नियम-कायदे तो अपना लिए पर भारतीयता की आत्मा से इसे जोडऩे पर ध्यान नहीं दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि साल-दर-साल इन सेवाओं के स्तर में गिरावट आती चली गई।
शुरूआत में बहुत से प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों ने राजनेताओं के गलत कार्यों में साथ देने से इनकार किया तो नियुक्ति, तबादलों और निलंबन जैसे हथियारों के बूते पर उन्हें किनारे कर दिया। फिर तो इन अधिकारियों में भ्रष्ट राजनेताओं के हाथ में हाथ डाल कर चलने की ऐसी होड़ मची कि आज साहसी, ईमानदार और कत्र्तव्यनिष्ठ अधिकारी अंगुलियों पर गिनने लायक संख्या में नजर आएंगे।
इन सेवाओं के स्तर में गिरावट की स्थिति यह है कि ज्यादातर अधिकारियों की मानसिकता ही दूषित होने लगी है। राष्ट्र इनके लिए गौण हो गया है और स्वार्थ सर्वोपरि। अधिकारियों में भी सेवाओं के आधार पर वर्ग भेद हो गया है। कुछ राष्ट्रीय सेवा के अधिकारी अन्य सेवाओं को तुच्छ मानने लगे हैं। अहंकार और संवेदनहीनता हर पदोन्नति के साथ बढऩे लगी है। आम आदमी से बात करना कई अधिकारियों को अपमानजनक लगता है। इनकी भाषा, कार्यशैली व जीवन शैली में पूर्ण रूप से अंग्रेजों की नकल नजर आती है। अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। फिर क्या इन स्कूलों की दशा कभी सुधर सकेगी?
यदि अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी ठान लें तो देश में भ्रष्टाचार पनप ही नहीं सकता। देश के संविधान ने इन्हें ताकत दी है। पर ज्यादातर अधिकारी राजनेताओं के आगे झुक कर बहती गंगा में हाथ धोने को ही देश सेवा का पर्याय मानने लगे हैं। वे बुद्धिजीवी तो बन जाते हैं, पर मनस्वी नहीं बन पाते। पहली आवश्यकता यह है कि फाउंडेशन कोर्स के दौरान प्रशिक्षुओं को भारतीय संस्कृति, सभ्यता और वर्तमान दौर के प्रति जागरूक और संवेदनशील बनाया जाए। सेवा के दौरान भारतीय भाषाओं को भी अंग्रेजी के बराबर मान्यता दी जाए।
ब्रिटेन की महारानी की छाया से जब तक नहीं निकलेंगे, गुलामी की मानसिकता बनी रहेगी और हृदय से कभी भारतीय नहीं हो पाएंगे। इनकी बनाई योजनाओं पर पश्चिम की नकल दिखती रहेगी। भारतीय होने के बावजूद अंग्रेजों की तरह जीवन जीने की चाह इन्हें स्वयं को तो भारतीयता से दूर ले ही जाती है, सम्पूर्ण राष्ट्र को कीमत चुकानी पड़ती है, सो अलग। इनकी नींव भारतीयता की पड़ेगी, तभी नवभारत साकार हो पाएगा।

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