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कौन तय कर रहा है फोन की ‘एक्सपायरी डेट’- आप या बाजार?

एक-दो वर्ष में फोन बदलना सिर्फ निजी निर्णय नहीं, बल्कि पृथ्वी पर अदृश्य बोझ भी है। कंपनियों की बदलती उत्पाद रणनीति इस संकट की जड़ है।

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जयपुर

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Opinion Desk

Dec 12, 2025

- डॉ. मुकेश कुमार शर्मा, स्वतंत्र लेखक एवं शोधार्थी

पछले कुछ वर्षों में स्मार्टफोन बाजार की रफ्तार इतनी तेज हो गई है कि उपभोक्ता अपनी जरूरत से पहले ही फोन बदलने लगा है। कंपनियों के चमकदार एक्सचेंज ऑफर- 'पुराना दो, नया लो'—हमारे भीतर यह भ्रम पैदा करते हैं कि यह खर्च नहीं, बल्कि बचत है। इस आकर्षण के पीछे एक ऐसी बाजार रणनीति काम कर रही है, जो धीरे-धीरे हमारी पसंद, हमारी जेब और हमारे निर्णय पर नियंत्रण स्थापित कर रही है। मरम्मत मुश्किल और महंगी होती जा रही है, अधिकृत सर्विस सेंटर कम महसूस होने लगे हैं और स्पेयर पाट्र्स इतने महंगे दिखते हैं कि उपभोक्ता चाहकर भी अपने पुराने फोन को ठीक नहीं करा पाता। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, जिसमें फोन बदलना विकल्प नहीं, बल्कि एक व्यापारिक अनिवार्यता बनता जा रहा है। दुनिया भी इसी दबाव से गुजर रही है।

ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर 2024 के अनुसार वर्ष 2022 में दुनिया ने लगभग 62 मिलियन टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा किया, जबकि उसका 22.3 प्रतिशत ही रीसाइकिल हो पाया। भारत की स्थिति कम गंभीर नहीं है। सीपीसीबी के अनुसार देश हर वर्ष 14-17 लाख टन ई-कचरा उत्पन्न कर रहा है। एक-दो वर्ष में फोन बदलना सिर्फ निजी निर्णय नहीं, बल्कि पृथ्वी पर अदृश्य बोझ भी है। कंपनियों की बदलती उत्पाद रणनीति इस संकट की जड़ है। आधुनिक फोन इस तरह डिजाइन किए जा रहे हैं कि उनकी मरम्मत सहज न रहे- नॉन-रिमूवेबल बैटरी, बेहद नाजुक ग्लास बॉडी, महंगे स्पेयर पाट्र्स और सॉफ्टवेयर अपडेट के बाद पुरानी डिवाइस का धीमा पडऩा उपभोक्ता को मरम्मत की बजाय अपग्रेड की ओर धकेल देते हैं। कई देशों में इसकी वजह से कंपनियों पर मुकदमे और जुर्माने भी लगे हैं, क्योंकि यह आरोप लगा कि उत्पादों की उम्र जानबूझकर कम रखी गई। सवाल यह है कि यदि तकनीक का उद्देश्य सुविधा बढ़ाना है तो मरम्मत को इतना कठिन और महंगा क्यों बनाया गया है? यह सवाल बाजार की नीयत पर सीधा प्रकाश डालता है। यही रणनीति आगे बढ़कर एक्सचेंज ऑफर का रूप लेती है। व्यवहार-आर्थिकी बताती है कि ऑफर, आकर्षक कीमतें, ईएमआइ और सीमित समय जैसी बिक्री रणनीतियां उपभोक्ता के निर्णय को तुरंत प्रभावित करती हैं। यही कारण है कि दुनिया भर में फोन बदलने का औसत चक्र 2-3 वर्ष पर आ गया है और युवाओं में यह अवधि और भी छोटी है। यह प्रवृत्ति वैश्विक स्तर पर भी अलग-अलग रूपों में दिखती है।

एशिया में तकनीक की तेज रफ्तार और ऑनलाइन सेल्स ने युवाओं को सबसे छोटी अपग्रेड-संस्कृति में बांध दिया है। इसके विपरीत यूरोप मजबूत उपभोक्ता कानूनों और 'राइट टू रिपेयर' के जरिए कंपनियों को टिकाऊ और मरम्मत-अनुकूल डिजाइन अपनाने पर मजबूर कर रहा है। अमरीका अपग्रेड संस्कृति का केंद्र है, जहां ट्रेड-इन, ईएमआइ और ब्रांड वफादारी ने फोन बदलने को जीवनशैली बना दिया है, भले पर्यावरणीय बोझ दूसरे देशों पर पड़े। ऑस्ट्रेलिया में कम आबादी लेकिन उच्च उपभोग ने प्रति व्यक्ति ई-कचरा तेजी से बढ़ाया है। उधर अफ्रीका में नया नहीं, बल्कि सेकेंड-हैंड स्मार्टफोन संस्कृति ज्यादा मजबूत है और स्थानीय रिपेयर नेटवर्क अब भी टिके हुए हैं। भारत ने 'राइट टू रिपेयर' की दिशा में कदम बढ़ाया है। एक रिपेयरएबिलिटी इंडेक्स पर भी विचार किया जा रहा है, जिसमें उत्पादों को उनकी मरम्मत की आसानी के आधार पर स्कोर दिया जाएगा। यदि यह लागू हो पाता है, तो कंपनियों को मजबूरन अधिक टिकाऊ और उपभोक्ता-हितैषी डिजाइन अपनाने होंगे। यह न केवल ई-कचरे को कम करेगा, बल्कि भारत की पुरानी रिपेयर संस्कृति को भी फिर से जीवन देगा।

अंतत: सवाल सिर्फ इतना नहीं कि हमें नया फोन लेना चाहिए या नहीं। असली प्रश्न यह है कि हमारी जरूरतें कौन तय कर रहा है- हम स्वयं या बाजार की रणनीतियां? तकनीक हमें सक्षम बनाए, यह आदर्श स्थिति है लेकिन तकनीक हमें इतना निर्भर बना दे कि हम अपनी जरूरतों की पहचान न कर सकें, यह किसी भी समाज के लिए स्वस्थ संकेत नहीं। स्मार्टफोन बदलना हमारी अपनी पसंद होनी चाहिए, कंपनियों का दबाव नहीं। 'राइट टू रिपेयर' को सिर्फ नीति नहीं, बल्कि उपभोक्ता-अधिकार और सामाजिक आंदोलन की तरह देखा जाए।