एक निजी स्कूल में कम्प्यूटर शिक्षक के रूप में सेवा देने वाले हीरालाल का जीवन कोरोना ने पूरी तरह बदल दिया। वे कहते हैं पिछले साल लॉकडाउन लगने पर करीब तीन माह तक घर बैठा रहा। इसके बाद आर्थिक स्थिति गड़बड़ा गई तो कमठे पर जाना शुरू किया। स्कूल आज तक नहीं खुले है। इस कारण कमठे पर ही काम कर रहा हूं। इससे स्कूल के मुकाबले कम रुपए मिलते हैं, लेकिन जैसे-तैसे परिवार का खर्च तो चल ही जाता है।
निजी स्कूल में दसवीं कक्षा तक के बच्चों को गणित पढ़ाने वाले लक्ष्मण भी पिछले साल से ही बेरोजगारी का दंश झेल रहे है। वे कहते हैं कि स्कूल से पगार नहीं मिलने पर फोल्डिंग करने फैक्ट्री जाने लगा। वह काम आता नहीं है। इस कारण पूरे दिन बाद भी मुश्किल से 250 से 300 रुपए तक मिलते हैं। जो स्कूल की तनख्वाह से काफी कम है, लेकिन कम से कम पत्नी व बच्ची का पेट भरने के साथ श्रमिक पिता को सहारा तो मिल रहा है।
प्रकाश कच्छवाह स्कूल संचालक है। कोरोना के बाद से ही स्कूल बंद है। स्कूल में फीस भी आना बंद हो गई। इसके बाद खुद कोविड पॉजिटिव हुए। आर्थिक हालात बिगड़े तो रामलीला मैदान में भाई के ली गई किराए की दुकान के बाहर चबुतरी पर पानी की बोतले व कुरकुरे बेचना शुरू किया। वे बताते हैं कि इससे परिवार का खर्च चल रहा है। यह काम नहीं करते तो आर्थिक स्थिति इससे भी बुरे हो जाती।
स्कूल संचालक अयूब खान बताते हैं कि स्कूल तो अभी है। वहां एक अध्यापक को दैनिक कार्य के लिए बुलाता हूं, लेकिन कोरोना के कारण अभिभावकों ने पिछले लम्बे समय से फीस नहीं दी है। इससे आर्थिक तकलीफ हुई तो मशीनरी की दुकान पर नौकरी शुरू कर दी। मशीन ठीक करने व पाइप आदि लगाने का कार्य आता था। इस कारण इस कार्य से अब संकट के समय परिवार की गाड़ी चला पा रहा हूं। स्कूल नहीं खुलने तक तो यह काम करना ही होगा।