
मेरे गांव की कहानी : वीरों ने तलवारों से लिखा मेरा इतिहास, मैं हूं सारंगवास, पढ़ें पूरी खबर...
पाली। मैं सारंगवास, वीरों ने तलवारों से लिखा मेरा इतिहास। 1658 ई में जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह प्रथम व औरंगजेब के बीच उज्जैन के निकट युद्ध में मेरी कोख से उपजे जुगराज सिंह ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया और वीर गति को प्राप्त हुए। उनकी बहादुरी व पराक्रम को देखते हुए उनके पुत्र ठाकुर रूपसिंह को 1659 ई में सारंगवास का पट्टा प्रदान किया।
महाराजा जसवन्तसिंह प्रथम की सेना में रहते हुए 1678 में काबुल की लड़ाई में ये भी अपने पिता की तरह ही काम आए। इनकी धर्मपत्नी खेजड़ला के प्रतापसिंह की पुत्री हरकंवर की छतरी गांव हरियामाली के तालाब की पाल पर बनी हुई है। हर कंवर के पुत्र मानसिंह ने जोधपुर महाराजा अजीतसिंह की सेवा में रहकर वीर दुर्गादास राठौड़ के साथ मुगलों के थानो पर छापामार युद्ध कर मुगलों की नाक में दम कर दिया था। फलस्वरूप महाराजा अजीतसिंह ने सन 1707 में स्वयं के राजतिलक के समय मानसिंह को सारंगवास का पट्टा पुन: प्रदान किया।
इनके पुत्र सखतसिंह को हरियामाली की जागीर, सूरजमल को मामावास, सरदार सिंह को बासनी एवं बख्तसिंह को सारंगवास की जागीरी मिली। सन 1730 में अहमदाबाद की लड़ाई में महाराजा अभय सिंह की तरफ से लडते हुए असाधारण वीरता का परिचय देकर दुश्मन के दांत खट्टे किए। सन् 1750 में महाराजा रामसिंह का साथ देते हुए मेड़ता के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। सन् 1780 में इस गांव का पट्टा मोहकम सिंह के पास रहा। इनके पुत्र दौलत सिंह, शेर सिंह, संग्राम सिंह, उदयसिंह व सांवत सिंह के वंशज ही आज सारंगवास में रह रहे हैं।
ठाकुर दौलत सिंह तलवार के धनी थे। सन् 1797 में मेवाड़ के जालिम सिंह ने मारवाड़ पर अधिकार करने के लिए चढाई कर दी। महाराजा भीमसिंह ने सारंगवास के दौलत सिंह के नेतृत्व में सेना भेजकर काछबली की घाटी में जालिम सिंह रोका व उससे भंयकर युद्ध किया। इसमें दौलत सिंह वीरगति को प्राप्त हुए पर जालिम सिंह का मारवाड़ पर अधिकार करने का सपना चकनाचूर हो गया। वीर परम्परा को कायम रखते हुए सन् 1914 को प्रथम विश्व युद्ध में घुड़सवार शैतान सिंह, शिवदान सिंह ने जोधपुर लांसर की तरफ से भाग लेकर अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया।
महाराजा उम्मेद सिंह के नेतृत्व में सन् 1939-1945 में सारंगवास के हवालदार सुमेर सिंह, सिपाही गुमान सिंह, भंवर सिंह ने सरदार इन्फेन्ट्री के साथ रहकर पांच वर्ष तक भारत के बाहर अंग्रेजों से लड़े। सन् 1948 में भारत पाक युद्ध में राइफलमैन रेवत सिंह ने तीथवाल क्षेत्र में अकेले चार घंटे तक शत्रु से लोहा लिया। इनके अद्भुत शौर्य को देखकर भारत सरकार ने उन्हें वीरचक्र से सम्मानित किया। सन् 1962 में कुन्दन सिंह, 1965 में हरि सिंह, लालसिंह, बदरी सिंह व भंवर नाथ ने अपने प्राणों की आहुति दी। सन् 1971 के युद्ध में जब्बर सिंह, मादु सिंह व वीर सैनिक कुनण सिंह पुत्र मूल सिंह ने वीर परम्परा के इस अनूठे यज्ञ में प्राणों की आहुति दी।
Updated on:
28 Apr 2019 06:21 pm
Published on:
28 Apr 2019 06:19 pm
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