कुछ इतिहासकार मानते हैं कि मुस्लिम लीग ने तो इस मुहिम को लीड किया, पर हिंदू महासभा, कांग्रेस और अंग्रेजी हुकूमत ने भी इसमें सहयोगी भूमिका निभाई। चूंकि मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने अलग से पाकिस्तान की ( demand separate Pakistan ) की और उनकी ये मांग पूरी भी हुई। इसके बावजूद ऐसा नहीं है उस समय भी देश के सभी मुसलमान विभाजन के पक्ष में थे।
जिन्ना विरोधी मुस्लिम नेता पड़ गए कमजोर मौलाना आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान देश के विभाजन के सबसे बड़े विरोधी थे। उन्होंने इसके ख़िलाफ़ पुरजोर तरीक़े से आवाज़ उठाई थी। लेकिन उनके अलावा इमारत-ए-शरिया के मौलाना सज्जाद, मौलाना हाफिज-उर-रहमान, तुफैल अहमद मंगलौरी जैसे कई और लोग थे जिन्होंने बहुत सक्रियता के साथ मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति ( Divisive politics ) का विरोध किया था। खास बात यह है कि जब देश आजादी मिलने के करीब पहुंच गया था तो एक तरह से मुस्लिम जनमानस जिन्ना और उनकी टोली के साथ था।
रायबरेली से एमएलए Aditi Singh ने प्रियंका गांधी की मुहिम को दिया झटका, सीएम योगी को बताया ‘राजनीतिक गुरु’ नेहरू कमेटी की रिपोर्ट भारत विभाजन की रेखा तब और मजबूत हो गई जब 1929 में मोतीलाल नेहरू कमेटी ( Motilal Nehru Committee ) की सिफ़ारिशों को हिंदू महासभा ने मानने से इनकार कर दिया। हालांकि मोतीलाल नेहरू कमेटी ने सिफारिश ही ऐसी की थी जिसे स्वीकार करना भी इतिहास को गलत दिशा देना ही साबित होता। मोतीलाल नेहरू कमेटी ने सिफ़ारिश की थी कि सेंट्रल एसेंबली में मुसलमानों के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित हों।
कांग्रेस ने उस समय भले ही कमेटी की सिफारिश को नकार दिया लेकिन इसका असर आगे दिखा। इसको आधार बनाकर 1938 आते-आते जिन्ना मुसलमानों के अकेले प्रवक्ता बन गए क्योंकि वे ही उनकी मांगों को ज़ोरदार तरीक़े से उठा रहे थे।
पुणे पैक्ट से बढ़ी बेचैनी दूसरी तरफ कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 1932 में गांधी-आंबेडकर के पुणे पैक्ट ( Pune Pact ) के बाद जब ‘हरिजनों’ के लिए सीटें आरक्षित हुईं तो सर्वणों और मुसलमानों दोनों में बेचैनी बढ़ी कि उनका दबदबा कम हो जाएगा। लेकिन देश के नामचीन इतिहासकारों ने इस बात पर गौर नहीं फरमाया। जबकि 1932 के बाद बंगाल के हिंदू-मुसलमानों का टकराव बढ़ता गया जो विभाजन की भूमिका तैयार करने लगा।
1905 में अंग्रेजों ने रख दी थी विभाजन की नींव माना तो यह भी जाता है कि 1905 में धर्म के आधार पर बंगाल का विभाजन करके अंग्रेजों ने देश के विभाजन की नींव पहले ही तैयार कर दी थी। इसका नतीजा ये हुआ है कि बंगाल का एक बड़ा तबका ब्रिटिश विरोध के बदले, मुसलमान विरोधी रुख़ अख्तियार करने लगे।
फ्रांसिस रॉबिनसन और वेंकट धुलिपाला ने एक पुस्तक में लिखा है कि यूपी के ख़ानदानी मुसलमान रईस और ज़मींदार समाज में अपनी हैसियत को हमेशा के लिए बनाए रखना चाहते थे। उन्हें लगता था कि हिंदू भारत में उनका पुराना रुतबा नहीं रह जाएगा।
Former PM Manmohan Singh ने दिए नेक सलाह, आर्थिक संकट से बाहर आने के लिए मोदी सरकार को करने होंगे 3 काम जिन्ना ने उठाया मतभेद का फायदा 1937 में जब ब्रिटिश भारतीय प्रांतों में कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी तो हिंदू और मुसलमान दोनों ओर के सांप्रदायिक तत्वों का बड़ा हिस्सा सत्ता हथियाने की होड़ लग गई जो 1940 के बाद लगातार कटु होती गई। जब कांग्रेस से जुड़े मुसलमान ख़ुद को अलग-थलग महसूस करने लगे तो जिन्ना की मुस्लिम लीग ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए इसका पूरा फ़ायदा उठाया।
खास बात यह है कि अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों को बढ़ावा दिया क्योंकि वे उनसे नहीं लड़ रहे थे। जबकि 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान लगभग सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था, ऐसे में लीगी-महासभाई तत्वों की बन आई।
लोहिया मानते थे कांग्रेसी नेताओं दोषी की देश विभाजन को लेकर बहस के बीच समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ( Ram Manohar Lohia ) ने अपनी किताब ‘गिल्टी मेन ऑफ़ पार्टिशन’ में लिखा है कि कई बड़े कांग्रेसी नेता जिनमें नेहरू भी शामिल थे वे सत्ता के भूखे थे जिनकी वजह से बंटवारा हुआ। इतिहासकार बिपन चंद्रा ने विभाजन के लिए मुसलमानों की सांप्रदायिकता को ज़िम्मेदार ठहराया है। वहीं माउंटबेटन और रेडक्लिफ ने बंटवारे के मामले में बहुत जल्दबाज़ी दिखाई। ऐसा इसलिए कि पहले भारत की आज़ादी के लिए जून 1948 तय किया गया था जिसे माउंटबेटन ने अगस्त 1947 कर दिया।