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बहादुरी की मिसाल बने ये दो जांबाज, पैर कटने और रीढ़ की हड्डी टूटने के बाद भी चुनी देश सेवा की राह

रायपुर के लालपुर निवासी 65 वर्षीय सेना के रिटायर्ड मेजर शमशेर सिंह कक्कड़ और मांढर निवासी चित्रसेन अनंत आज के युवाओं के लिए देश सेवा की मिसाल बने हुए हैं

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बहादुरी की मिसाल बने ये दो जांबाज, पैर कटने और रीढ़ की हड्डी टूटने के बाद भी चुनी देश सेवा की राह

रायपुर . पाकिस्तान से युद्ध करते हुए एक ने अपने पैर गंवाए तो दूसरे की रीढ़ की हड्डी में चोट लगने से शरीर चलने फिरने लायक नहीं रहा। लेकिन दोनों ने जिंदगी की जंग नहीं हारी। रायपुर के लालपुर निवासी 65 वर्षीय सेना के रिटायर्ड मेजर शमशेर सिंह कक्कड़ और मांढर निवासी चित्रसेन अनंत आज के युवाओं के लिए देश सेवा की मिसाल बने हुए हैं। अहम बात यह है कि दोनों ही भारत-पाकिस्तान युद्ध में दुश्मनों को धूल चटाई।

मेजर शमशेर सिंह कक्कड़ ने 1971 में और हवलदार चित्रसेन अनंनत ने कारगिल युद्ध में। 1971 के भारत पाक युद्ध में मेजर शमशेर सिंह कक्कड़ दुश्मन की पोस्ट की ओर आगे बढऩे के दौरान लैंड माइन में पैर पडऩे के उनके बांये पैर के चीथड़े उड़ गए थे।

देश के प्रति उनका प्रेम इस कदर रहा कि इतनी बड़ी घटना के बाद भी उन्होंने लकड़ी के पैरों के सहारे 20 साल और आर्मी में ही नौकरी की। अब वो अपना अनुभव स्कूल, कॉलेज, एनसीसी कैंप, सामाजिक कार्यो में देते रहे हैं। दूसरी ओर 11 महार रेजिमेंट के हवलदार चित्रसेन अनंनत ने कारगिल युद्ध लैंड माइंस के फटने पर एक टुकड़ा उनकी रीढ़ की हड्डी में लग जाने से चलने फिरने के लायक भी नहीं रहे। लेकिन इसके बाद भी हौसला एेसा रहा कि अपने गांव युवाओं को नशे गलत संगतियों से दूर रहने की सलाह देते हुए घर में ही आर्मी में भर्ती की तैयारी करा रहे हैं।

मेजर शमशेर सिंह कक्कड़ पैर गंवा दिया उसके बाद सेना की ओर से एक पेट्रोल पंप कोरबा में आवंटित हुआ था। साथ ही आर्मी से सेवानिवृत्ति का भी विकल्प था, लेकिन उन्होंने फिर से नकली पैर के सहारे सेना में ही नौकरी करने की राह चुनी। और पूरे 20 साल तक नौकरी की। इस दरमियान कर्नल देश के कई सीमाओं पर तैनात रहे।

बतादें कि देश की आजादी के पहले शमशेर सिंह कक्कड़ पाकिस्तान के पेशावर जिले में रहते थे। अब देश का बंटवारा हुआ उस समय उनकी उम्र महज 5 माह थी। उनके पिता मेजर ज्ञान चंद्र कक्कड़ ने उनकी माता के साथ उन्हें रायपुर भेज दिया। तब से रायपुर में शिक्षा प्राप्त कर सेना में शामिल हुए। पैर गवांने के बाद मेजर आवसाद में चले गए थे। जिसके बाद उन्होंने आर्मी के लिंब सेंटर पूना में कुछ महीने बिताए जहां आर्मी के सैकड़ों जवान रहते हैं जिन्होंने ने अपना आधा-आधा शरीर तक गवां दिया था। उनके जज्बे को देख कर कर्नल हौसला बढ़ा। रही सही कसर उनके पिता के उन शब्दों ने पूरा कर दी पैर ही गए हैं, जिंदगी नहीं।

हवलदार चित्रसेन अनंत का सपना था कि उनकी तरह उनके बेटे भी सेना में ही जाए। अब वो अपने छोटे बेटे को सेना में जाने के लिए तैयारी करवा रहे हैं। इसके अलावा अपने गावं के दर्जनों युवाओं को सेना के महत्व के बारे में अवगत कराते हैं। चित्रसेन बताते हैं कि देश की सेवा के दौरान उनके घायल होने के बाद उनके परिवार का बड़ा सहारा रहा है। शुरआत के दिनों मंे वो बिस्तर से हिल भी नहीं पाते थे। 2 नवंबर 1999 को वो घायल हुए दो साल तक सेना के अस्पताल में उनका इलाज चला। इसके बाद उनकी पत्नी और बच्चों ने उनका मनोबल बढ़ाया।