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7 प्वॉइंट में जानिए तमिलनाडु से नए संसद भवन तक धार्मिक सेंगोल की यात्रा, समझिए कैसे हुई तलाश

भारत में गुमनाम धरोहर का किस्सा नया नहीं है। सेंगोल उसी की नई कड़ी है, भले ही जिस सेंगोल (scepter) की हम बात कर रहे हैं उसका अवतार नया है, लेकिन उसकी जड़ें 2600 साल से अधिक पुराने चोल राजवंश तक जाती हैं तो आइये जानते हैं सेंगोल की परंपरा (sengol kya hai ) और गुमनामी से तलाश तक का सारा किस्सा।

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Pravin Pandey

May 29, 2023

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सेंगोल

सबसे पहले क्या है सेंगोल (sengol)
सेंगोल की उत्पत्ति तमिल शब्द सेम्मई से हुई है, जिसका अर्थ है सत्य का साथ, धर्म और निष्ठा। इसके शीर्ष पर धर्म के प्रतीक के रूप में शिव का वाहन नंदी रहता है। चोल राजा, नए राजा को यह राजदंड देकर सत्ता हस्तांतरण करते थे। इस समय एक धार्मिक प्रक्रिया पूरी की जाती थी(जब राजा कहता था मैं अदंड्य हूं तो पास खड़ा साधु छोटे पतले पलाश के डंडे से तीन बार मारकर कहता था राजा तुझे भी दंडित किया जा सकता है)। यह जिसके पास होता था उससे न्याय की अपेक्षा की जाती थी। इसका जिक्र महाग्रंथ सिलापथीकरम (Silapathikaram) और मनीमेकलई (Manimekalai) में है।


सेंगोल का नए संसद भवन का कनेक्शन
आजादी के समय सत्ता हस्तांतरण की रस्म के लिए इसे विशेष रूप से तमिलनाडु के अधीनम मठ ने इसे तैयार कराया था, जिसे लॉर्ड माउंटबेटन ने पं. नेहरू को सौंपकर प्रक्रिया आगे बढ़ाई। बाद में यह प्रयागराज के म्युजियम में रखवा दिया गया। इसकी जानकारी सामने आने पर इसे यहां लाया गया और तमिलनाडु के 30 अधीनम साधुओं ने इसे पीएम मोदी को सौंपा। बाद में इसे 28 मई 2023 को नए संसद भवन में स्पीकर के आसन के पास लगवा दिया गया है।


सेंगोल की तलाश कैसे हुई
दो साल पहले तमिल पत्रिका तुगलक में सेंगोल पर एक लेख छपा था। इसे प्रसिद्ध नृत्यांगना पद्मा सुब्रह्मण्यम ने पढ़ा तो पीएम मोदी को पत्र लिखा। खोज शुरू हुई तो प्रयागराज के म्युजियम में यह मिली, उसकी स्लिप पर लिखा था पं. जवाहर लाल नेहरु को भेंट, सुनहरी छड़ी। हालांकि इससे कुछ समय पहले इसे बनाने वाले चेट्टी परिवार के बच्चों ने भी इसे तलाश लिया था। इससे पहले कांची मठ के महा पेरियवा ने यह कहानी अपने शिष्य को सुनाई थी, वहां से यह कहानी बीआर सुब्रह्मण्यम की किताब में आईं और फिर तमिल पत्रिकाओं में।


सेंगोल कैसे पहुंचा था दिल्ली
वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित नेहरू से कहा था कि सत्ता हस्तांतरण कैसे चाहते हैं, उन्होंने ही सलाह दी कि ऐसी रस्म होनी चाहिए जिसका ऐतिहासिक महत्व हो। इस पर नेहरूजी ने सी राजगोपालाचारी से बात की तो उन्होंने चोल वंश की परंपरा अपनाने की सलाह दी, जिसे उन्होंने स्वीकृति दे दी। अब सेंगोल बनवाना चुनौती थी क्योंकि किसी ने देखा नहीं था, इसके लिए तमिलनाडु के प्रमुख मठ तिरुवदुथुराई अधीनम से संपर्क किया गया।

इस मठ के 20वें गुरु श्री ला श्री अंबालावना डेसिका स्वामीगल उस वक्त बीमार थे, लेकिन ऐतिहासिक घटना के चलते उन्होंने हामी भर दी और स्वर्णकार वुम्मीदी बंगारु चेट्टी को चांदी के सेंगोल पर सोने की परत चढ़ाकर बनाने की जिम्मेदारी सौंप दी। आठ दिन से भी कम समय में इसे बनाकर 14 अगस्त 1947 की शाम तीन प्रतिनिधियों के साथ विशेष विमान से दिल्ली पहुंचाया गया। इसमें प्रमुख श्री कुमार स्वामी थंबीरन ने रीति अनुसार लॉर्ड माउंटबेटन को दिया।


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ऐसे पूरी हुई धार्मिक रस्म
जब अधीनम पुरोहितों ने वायसराय को सेंगोल सौंपा तो कुछ देर बाद उन्होंने इसे फिर माउंटबेटन ने इसे कुमार स्वामी को सौंप दिया और गंगाजल से शुद्ध कर इसकी शोभायात्रा निकाली गई। शोभायात्रा नेहरू जी के आवास पहुंची, जहां उन्होंने स्वागत किया। और सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया शुरू हुई। रात 10.45 बजे तमिल संत त्रिन्यानसमंदर द्वारा रचित कोलारपदिगम के श्लोक का पाठ हुआ। नेहरूजी को पीतांबर पहनाया गया, तंजोर नदी का जल छिड़का गया और उनके माथे पर भस्म लगाकर सेंगोल सौंपा गया।


15 हजार रुपये थी लागत
1947 में इस सेंगोल को जब बनाया गया तब इसकी लागत 15 हजार रुपये आई थी, इसे चांदी से बनाया गया था, जिस पर सोने की परत चढ़ाई गई थी। इस समय इसकी कीमत 70 से 75 लाख रुपये होगी।


नेहरु संग्रहालय में रखी जाएगी रिप्लिका
अब जब 1947 में तैयार 138.4 सेमी लंबी सेंगोल को संसद भवन में स्थापित कर दिया गया है तो प्रयागराज के नेहरु संग्रहालय ने यहां रिप्लिका रखने का फैसला किया है। संग्रहालय के अधिकारियों का कहना है कि इसे तैयार कराने का काम भी शुरू हो गया है। इससे पहले 4 नवंबर 2022 को सेंगोल को नेहरू संग्रहालय से राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में स्थानांतरित कर दिया गया था।