दादा मुखर्जी बताते हैं कि उनकी मां रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार से थीं, जहां जातिपाति का काफी असर था। इसलिए निचली जाति का व्यक्ति उनकी रसोई में प्रवेश करे, ऐसा सोचना भी उनके लिए मुश्किल था। लेकिन महाराजजी के प्रभाव से उनका दृष्टिकोण बदल गया। पश्चिमी लोग भी उनकी रसोई में प्रवेश करने लगे, मुस्लिम धर्म वालों से भी उनका मेल मिलाप हो गया। वे सभी को बच्चों की तरह देखने लगीं। लेकिन इसके लिए महाराजजी ने मां से बस इतना कहा था, “मां, सभी को भोजन दो।”
मां भी बाबा की करती थी प्रतीक्षा
दादा मुखर्जी के अनुसार मां और मौसी बिना औपचारिकता के नीम करोली बाबा से बात करती थीं और बाबा भी इसका आनंद लेते थे। वे जब कहीं जाने लगते तो दोनों उनसे पूछती थीं कहां जा रहे हैं, दोबारा कब आएंगे और कभी-कभी उन्हें घर में रूकने के लिए कहतीं। एक बार बाबाजी आए और दो दिन बाद जाने लगे तो मां ने कुछ दिन और रूकने के लिए कहा। इस पर बाबा बोले-“मां, अभी मुझे जाने दो, मैं जल्द ही वापस आऊंगा।” इस पर मां कहने लगी, ”तुम्हारे पास कोई काम नहीं है, बस यहां से भागना चाहते हो। ” इस पर बाबा हंसते हुए बोले वे जल्द ही लौटेंगे।
मां को नीम करोली बाबा का उत्तर
तीन महीने बीत जाने के बाद भी नीम करोली बाबा वापस नहीं लौटे तो मां घर में कहने लगी कि, “देखो, इतना समय बीत गया, लेकिन नहीं लौटे। हमें झांसा दे दिया।” इधर कुछ दिन बाद बाबाजी लौटे और मां से मिलने उनके कमरे में गए तो सबसे पहले मां ने कहा कि, “बाबा, आप बहुत झूठ बोलते हैं। आपने वादा किया था कि आप जल्द ही वापस आएंगे। लेकिन आप तीन महीने बाद लौटे हैं।” इस पर नीम करोली बाबा ने उत्तर दिया, “मां, मैं कहां गया था? मैं तो हमेशा ही यहीं रहता हूं। मेरा विश्वास करो, मां, मैं तुमसे कभी झूठ नहीं बोलता। मैं हमेशा यहीं रहा।”