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Interesting stories of sir harisingh gour : भारत लौटने के लिए नहीं थे पैसे, तो कीमती सामान रख दिया था गिरवी

आज 26 नवंबर को सर गौर की जयंती के अवसर हम आपको उनके जीवन से जुड़े कुछ रोचक पहलू बता रहे हैं।

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सागर

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Aakash Tiwari

Nov 26, 2017

Interesting stories of sir harisingh gour

Interesting stories of sir harisingh gour

सागर. डॉ. हरिसिंह गौर (26 नवम्बर 1870-25 दिसम्बर 1949) सागर विवि के संस्थापक, शिक्षाशास्त्री, ख्यात विधिवेत्ता, न्यायविद्, समाज सुधारक, साहित्यकार (कवि, उपन्यासकार) तथा महान दानी एवं देशभक्त थे। उनके नाम का उल्लेख बीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मनीषियों में किया जाता है। वे दिल्ली विवि तथा नागपुर विवि के उपकुलपति रहे। भारतीय संविधान सभा के उपसभापति, साइमन कमीशन के सदस्य तथा रॉयल सोसायटी फॉर लिटरेचर के फैलो भी रहे थे। उन्होंने अपनी गाढ़ी कमाई से 20 लाख रुपए से 18 जुलाई 1946 को अपनी जन्मभूमि सागर में सागर विवि की स्थापना की. वसीयत द्वारा अपनी पैतृक सपत्ति से 2 करोड़ रुपए दान भी दिया था। इस विवि के संस्थापक, उपकुलपति तो थे ही वे अपने जीवन के आखिरी समय (25 दिसम्बर 1949) तक इसके विकास व सहेजने के प्रति संकल्पित रहे। आज २६ नवंबर को उनकी जयंती के अवसर हम आपको उनके जीवन से जुड़े कुछ रोचक पहलू बता रहे हैं।

गिरवी रखा कीमती सामान भी वापस नहीं ले पाए थे
वर्ष १८९२ में बार एेट लॉ लंदन का पंजीयन प्रमाण पत्र प्राप्त कर सर गौर की मंशा भारत लौटने की थी, लेकिन इसके लिए उनके पास जहाज के टिकट के पैसे नहीं थे। उनके पास सोने की अंगूठी, घड़ी और चेन थी, जो उन्होंने महाजन के पास गिरवी रखवाई और इसके बदले उन्हें १७ पाउंड मिले। यह राशि जहाज का थर्ड क्लास का टिकट लेने के लिए पर्याप्त थी। मुंबई आने पर सर गौर ने अपने आपको एकदम अकेला पाया। वे अपना सामान, लगेज भी पैसे के अभाव में जहाज कंपनी से वापस नहीं ले पाए थे। इस वजह से उन्हें रॉयल सोसायटी ऑफ लिटरेचर से प्राप्त सोने के मेडल से हाथ धोना पड़ा था।

सर गौर फिजूल खर्च को लेकर काफी सख्त थे। उनका जीवन अनुशासन भरा था। वे अपने नियमों से कभी भी समझौता नहीं करते हैं। सर गौर की बेटी ने भी अपनी पुस्तक में एक एेसी ही घटना का जिक्र किया था। जब गौर जापान सरकार के आमंत्रण पर लेक्चर देने गए थे, तब उनकी बेटी भी उनके साथ गई थी। सर गौर अपनी बेटी को जेब खर्च दिया करते थे, जो उन्हें दो दिन बाद देना था। जापान में बेटी को एक छाता पसंद आ गया। उन्होंने सर गौर से छाता खरीदने के लिए यन (जापानी मुद्रा) मांगे। इस पर सर गौर का जवाब था कि अगर आपके पास पर्याप्त धन नहीं है तो पसंद का सामान खरीदने की न सोचें और न उधार लें। असल में डॉ. गौर यह नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी दो दिन पहले ही अपने जेब खर्च का पैसा उनसे उधार ले। हालांकि यह अलग बात थी कि पिता अपनी पुत्री को बहुत चाहते थे। इसलिए एक दिन बाद जापान के उस होटल के कमरे में पुत्री को एक पार्सल मिला। जब उसने पार्सल खोलकर देखा तो उसमें से जापानी छाता निकला एवं उस पर लिखा था 'तुम्हारे पिता का स्नेह"।