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आदिकुमार के पंचकल्याणक : नीलांजना का नृत्य देख आदिकुमार को हुआ वैराग्य

आदिकुमार के पंचकल्याणक : नीलांजना का नृत्य देख आदिकुमार को हुआ वैराग्य

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सागर

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Hamid Khan

Apr 22, 2018

आदिकुमार के पंचकल्याणक

मालथौन. मुनि संघ के सानिध्य में आयोजित पंचकल्याणक एवं रथ महामहोत्सव पर शनिवार को तपकल्याणक पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए गए। युवराज आदिकुमार के विवाह के उपलक्ष्य में नीलांजना नृत्य की मनोरम प्रस्तुति की गई। नृत्य के दौरान नीलांजना के मरण के दृश्य को देख युवराज आदिकुमार को वैराग्य उत्पन्न हो गया। वह राजपाट छोड़ वन को विहार कर गए।
भरत बाहुबली का राज्य तिलक किया गया। इस अवसर पर ईशरवारा समिति के सागर विधायक शैलेन्द्र जैन, उत्तमचंद जैन, विनोद पटना, ऋषभ बांदरी, संजय दिवाकर, जेडी जैन एड., गौतम जैन ईशरवारा, अशोक शाकाहार, सुनील जैन लुहारी, प्रकाश बहेरिया के साथ ही शीतल जल की व्यवस्था करने में अग्रणी गिरीश पटैरिया, आशीष पटैरिया सहित सैकड़ों श्रद्धालु उपस्थित थे।

कृषि करो या ऋषि बनो: मुनिश्री अजितसागर
मालथौन. पंचकल्याणक एवं रथ महामहोत्सव के चतुर्थ दिवस पर तपकल्याणक के महत्व को प्रतिपादित करते हुए मुनिश्री अजितसागर महाराज ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति ही एक ऐसा संस्कृति है, जो व्यक्ति के सामने दो लक्ष्य रखती है। इस संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति अकर्मठ से कर्मठ बनाने की बात कहती है। पुरुष को समीचीन पुरुषार्थ में लगती है। यदि कोई पुरुष, पुरुषार्थ करने से मुख मोड़ता उसे फिर का पुरुष नहीं कहा जाता है। ऐसी संस्कृति जो व्यक्ति को जीवन जीने के लिए जो दो लक्ष्य रखती है वो है कृषि करो या ऋषि बनो।
मुनिश्री ने कहा कि भारत ही एक ऐसा देश है जो मुख्य रूप से कृषि प्रधान देश है। कृषि करके व्यक्ति सांसारिक जीवन में रहकर अपने जीवन का निर्वाह करता है। इसी संस्कृति की दूसरी जो धारा है वह ऋषि बनने की रही है। ऋषि परंपरा भारत की आज की नहीं युग के आदि से यह परंपरा आई। भगवान आदिनाथ ने अपने सांसारिक जीवन को त्यागकर आत्मिक जीवन की ओर मुख मोड़ा था। संसार की असारता को जानकर सार भूत तत्व को जाना था। यानि ऋषि परंपरा को इस कर्मभूमि पर लोगों को बतलाया था। ऋषि वह होता है जिसके भावों में हमेशा ऋजुता हुआ करती है। व्यक्ति जीवन में कषाय भाव के कारण कटुता उत्पन्न होती है लेकिन कषायों का जब शमन होता है तब उसे ऋषि बनने की पात्रता प्राप्त होती है।
मुनिश्री ने कहा कि ऋषि हो मुनि हो, यति हो और साधु कहों सबका एक ही अर्थ है। एक मुनि के जीवन में और सामान्य व्यक्ति के जीवन में बहुत अंतर होता है। गृहस्थ का जीवन कषायों से संतृप्त रहता है पर साधु का जीवन कषायों को तपाने में लगा रहता है और अपने आत्मिक सुख में लीन रहता है। बाहरी की गरमी भी वह शीतलता का अनुभव करता है। क्यों? क्योंकि आत्मा की शीतलता ही सबसे बड़ी शीतलता है आत्मिक विकास ही सबसे बड़ा विकास है। ऐसे विकास का पथ दिखाने वाले भगवान आदिनाथ ने संसार की असारता को जाना राग रंग में सजी हुई राज्य सभा में नीलांजना का नृत्य ही वैराग्य का कारण बना, जो स्वर्ग की सबसे सुन्दर नर्तकी थी जिसका मरण ही संसार की असारता का दर्शन करा गया, वैराग्य की ओर ले गया, अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अपना राजपाट देकर सांसारिक वैभव का त्याग कर पंच मुष्ठि केश लोंच कर निग्र्रन्थ दीक्षा को ग्रहण किया। यह अंतिम दीक्षा लेकर संसार का अंत करने का कदम और अनंत की ओर कदम बढ़ाने का कार्य कराने वाला यह कल्याणक होता है।