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world population day 2019 : बिगड़ रहा है जनसंख्या और संसाधनों का संतुलन

locationसागरPublished: Jul 11, 2019 02:48:32 am

Submitted by:

Rizwan ansari

विश्व जनसंख्या दिवस पर विशेष : जनसंख्या में वृद्धि के कारण पर्यावरण, आवास, रोजगार की समस्या के साथ-साथ अन्य सामाजिक समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं।

world population day 2019 article

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डॉ. शरद सिंह. सागर. प्रति वर्ष 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया पर समूचा विश्व चिंतन करता है पृथ्वी पर निरंतर बढ़ती जनसंख्या पर। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की संचालक परिषद द्वारा 1989 में पहली बार यह दिवस मनाया गया था। उस समय इसकी आवश्यकता इसलिए महसूस हुई क्योंकि उस समय जनसंख्या का आंकड़ा चौंकाने वाला था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अनुभव किया कि इस प्रकार दिवस मनाकर दुनिया के सभी देशों का ध्यान दुनिया की बढ़ती हुई जनसंख्या के प्रति आकृष्ट किया जा सकता है। इसके बाद इसे वैश्विक स्तर पर मनाने का निर्णय लिया गया। इस विशेष जागरूकता उत्सव के द्वारा परिवार नियोजन के महत्व जैसे जनसंख्या मुद्दे के बारे में जानने के लिए, कार्यक्रम में भाग लेने के लिए लोगों को बढ़ावा देना, लैंगिक समानता, माता और बच्चे का स्वास्थ्य, गरीबी, मानव अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, लैंगिकता शिक्षा, गर्भनिरोधक दवाओं का इस्तेमाल और सुरक्षात्मक उपाय जैसे कंडोम, जननीय स्वास्थ्य, नवयुवती गर्भावस्था, बालिका शिक्षा, बाल विवाह, यौन संबंधी फैलने वाले इंफेक्शन आदि गंभीर विषयों पर विचार रखे जाते हैं।

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ये हैं सबसे बड़े कारण

दूषित सामाजिक व्यवस्था और आर्थिक विपन्नता- ये सबसे बड़े कारण हैं भारत में जनसंख्या वृद्धि के। समाज में बेटियों की अपेक्षा बेटों की ललक ने जनसंख्या के समीकरण को बिगाडऩे में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है। एक बेटे की पैदाइश की चाह में आज भी मध्यम वर्ग एवं निम्नमध्यम वर्ग में बेटियों के रूप में जनसंख्या बढ़ती जा रही है। भले ही उन बेटियों का उचित लालन-पालन नहीं हो पाता हो और वे जीवन भर उपेक्षित रहती हों, किंतु जनसंख्या में वृद्धि की भागीदार बना दी जाती हैं। समाज ऐसे परिवार को दोषी भी नहीं ठहराता। यदि दोषी ठहराई ही जाती हैं तो केवल वह मां जो बेटियों को जन्म देती हैं, जबकि अब यह विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है कि गर्भस्थ शिशु के वर्ग निर्धारण के लिए केवल मां जिम्मेदार नहीं होती।

यूपी, बिहार में सबसे ज्यादा आर्थिक विपन्नता
कई बार यह प्रस्ताव सामने आया कि राजनीतिक पदों पर योग्यता निर्धारण के अंतर्गत दो या-तीन बच्चों के माता-पिता होने की सीमा रखी जाए किंतु बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव एवं राबड़ी देवी का पदासीन होना ऐसे प्रस्तावों की धज्जियां उड़ाता रहा है। यूपी और बिहार प्राकृतिक संसाधनों एवं जलापूर्ति की दृष्टि से सुसम्पन्न प्रदेश हैं, लेकिन इन्हीं राज्यों में सबसे अधिक आर्थिक विपन्नता भी है। इस संदर्भ में मैं अपना एक अनुभव साझा करना चाहूंगी कि जब मैं पहली बार सड़क मार्ग से यूपी गई तो मुझे कानपुर से कुशीनगर तक गन्ने के खेत, आलू के खेत और लगभग हर घर की छतों पर फैली हुई रेरुआ (गिल्की या नेनुआ) की बेलें दिखाई दीं। आम के बागों की तो बात ही अलग थी। मैंने अपने परिचित सहयात्री से पूछा कि जब यहां इतनी अच्छी उपज होती है तो फिर गरीबी क्यों हैं? लोग पैसे कमाने अपना प्रदेश छोड़कर दूसरे प्रदेशों में क्यों जाते हैं? उन्होंने एक वाक्य में उत्तर दिया- यहां संसाधन से अधिक जनसंख्या है। ठीक यही स्थिति मुझे कुशीनगर के बाद बिहार में गोपालगंज से समस्तीपुर तक देखने को मिली। बिना पूछे ही उत्तर मेरे दिमाग में कौंध गया कि यहां भी संसाधन से अधिक जनसंख्या है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की स्थिति भी इससे अलग नहीं रह गई है। दक्षिण भारत के केरल जैसे राज्य तो पहले ही इस विडम्बना के शिकार हो चुके हैं।

 

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तब पलायन बन जाता है मजबूरी

जब जनसंख्या इतनी बढ़ जाए कि संसाधन कम पडऩे लगें तो पलायन की स्थिति मजबूरी बन जाती है। जनसंख्या बढऩे के दो कारणों का मैंने शुरू में जिक्र किया था। जिसमें पहला कारण एक बेटे की चाहत में बेटियों की लाइन लगा देना हिन्दी पट्टी की सामाजिक व्यवस्था का सबसे बड़ा झोल है। दूसरा कारण जो मैंने याद दिलाया था वह है आर्थिक विपन्नता। आर्थिक दृष्टि से तबके में अक्सर यह भ्रम रहता है कि जितने हाथ होंगे उतनी कमाई होगी। इस मानसिकता के चलते विशेष रूप से झुग्गी बस्तियों में तीन से अधिक बच्चों की पैदाइश देखी जा सकती है। एक पैडल रिक्शा वाला अथवा रेहड़ी-खोमचा लगाने वाला व्यक्ति यदि एक या दो बच्चों को जन्म दे तो वह अपनी सीमित आय में भी उनका ढंग से लालन-पालन कर सकता है। जबकि अधिक बच्चे पैदा करने पर अपनी बाल्यावस्था से ही उन बच्चों को अपना और अपने माता-पिता के परिवार का पेट भरने के लिए मेहनत-मजदूरी में जुट जाना पड़ता है। असफल होने पर ऐसे बच्चे ही अपराध का रास्ता पकड़ लेते हैं। दूसरी ओर इन निर्दोष बच्चों के कारण संसाधनों पर पडऩे वाला दबाव इसनके साथ ही शेष आर्थिक व्यवस्था को भी तोडऩे लगता है।

सामाजिक समस्याएं भी बढ़ रहीं
दुर्भाग्य से हम आज भी जनसंख्या के नियंत्रण के आवश्यक लक्ष्य को नहीं पा सके हैं। यह गनीमत है कि आज के अधिकांश पढ़े-लिखे नागरिक बच्चों की सीमित संख्या का अर्थ समझ चुके हैं और वे जान गए हैं कि माता-पिता दोनों ही धन कमाएं फिर भी दो या तीन बच्चों की ही अच्छी परवरिश कर सकते हैं। इस प्रकार की स्वप्रेरित परिवार नियोजन ने स्थिति को कुछ हद तक संतुलित कर रखा है अन्यथा हमारे देश की जनसंख्या की विस्फोटक स्थिति न जाने कब की सोमालिया और सूडान जैसी भयावहता में जा पहुंची होती। फिर भी आज की स्थिति भी कोई बहुत खुश होने वाली बात नहीं है। भारत की जनसंख्या बीते एक दशक में 18.1 करोड़ बढ़कर अब 1.21 अरब से भी अधिक हो गई है। जनगणना के पिछले आंकड़ों के अनुसार, देश में पुरुषों की संख्या 62.37 करोड़ और महिलाओं की संख्या 58.64 करोड़ है। चिंताजनक तथ्य यह है कि छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में लिंगानुपात में आजादी के बाद से सर्वाधिक बढ़त हुई है। पिछली गणना में यह प्रति हजार लिंगानुपात 927 था जो अब घटकर 914 हो गया है। यह भी तनिक पिछले आंकड़े हैं। जनसंख्या में वृद्धि के कारण पर्यावरण, आवास, रोजगार की समस्या के साथ-साथ अन्य सामाजिक समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं। बढ़ती आबादी पर अगर नियन्त्रण नहीं किया गया तो आने वाले समय में स्थिति और भयावह हो जायेगी। प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं और इनका अंधाधुंध दोहन समूची मानव सभ्यता को विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर सकता है। अनियन्त्रित आबादी से न सिर्फ आर्थिक संकट पैदा हो रहा है बल्कि भ्रष्टाचार में भी वृद्धि हो रही है। अनियन्त्रित आबादी के कारण जल, वायु, खनिज तथा ऊर्जा के परम्परागत स्रोतों का अनियोजित दोहन हमें मानव जीवन के पतन की ओर ले जा रहा है। वनों की अंधाधुंध कटाई तथा कृषि योग्य भूमि की लगातार घटती उर्वराशक्ति गम्भीर चुनौतियां हैं जिन्हें हल्के से नहीं लिया जा सकता है।

कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल असर
उदारीकरण की मौजूदा व्यवस्था में उद्योगों की स्थापना के लिए कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण करके उसे औद्योगिक क्षेत्र में बदलने का कार्य जारी है। औद्योगीकरण के विस्तार से भारत अनेक वस्तुओं के उत्पादन में आत्मनिर्भर तो हुआ है किन्तु इससे कृषि योग्य भूमि को हानि भी हुई है। भारत में काम-काज के अन्य विकल्पों की उपलब्धता के अवसर सीमित हैं। इसलिए जनसंख्या वृद्धि का समूचा बोझ कृषि पर है। सीमान्त और छोटी जोतों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। सन 2020 तक कृषि जोतों का आकार 0.11 हेक्टेयर रह जाने का अनुमान लगाया जा रहा है, जिसमें अब एक वर्ष भी नहीं बचे हैं। इसका कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। जो विस्फोटक हो चली जनसंख्या का पेट नहीं भर सकेगी और हमें दुनिया के दूसरे देशों के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा। जनसंख्या की बढ़त के कारण रिहायशी क्षेत्र निरंतर बढ़ रहा है जिससे जंगल और जलस्रोत नष्ट होते जा रहे हैं। पर्यावरण असंतुलित हो रहा है। न तो पीने को शुद्ध जल है, न सांस लेने को शुद्ध हवा। हर तरफ प्रदूषण के बढ़ते साम्राज्य के बीच हम स्वस्थ पीढ़ी की कल्पना भला कैसे कर सकते हैं?

365 दिन जागरूकता की जरूरत
देश का प्रत्येक राज्य विश्व जनसंख्या दिवस को सरकारी स्तर पर उत्सवी होकर मनाता है किन्तु यह उत्सव तभी सार्थक साबित हो सकेगा जब लैंगिक असमानता को समाप्त कर के जनसंख्या पर नियंत्रण पा लेंगे। तभी प्रकृतिक संसाधन बचेंगे, देश की अर्थव्यवस्था बचेगी और हम सुनहरे भविष्य की सच्ची आशा कर सकेंगे। जिस मध्यप्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में अन्य प्रदेशों से आ कर लोग आजीविका पाते थे उसी बुंदेलखंड से आज लोगों को अपनी खेती-किसानी छोड़कर पलायन करना पड़ रहा है। संसाधनों का उचित वितरण न होना तथा अनेक स्थानों पर आवश्यकता से अधिक दोहन कर लिया जाना जनसंख्या के अनुपात में संसाधनों को तेजी से घटा रहा है। अत: जहां एक ओर आर्थिक व्यवस्थाओं को दुरुस्त करने की जरूरत है, वहीं जनसंख्या पर नियंत्रण की भी महती आवश्यकता है। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी के समय परिवार नियोजन अभियान चलाया गया किन्तु आंकड़ों का खेल खेलने वालों ने नसबंदी अभियान को ऐसी विद्रूपता तक पहुंचा दिया कि कांग्रेस सरकार को ही सत्ता से हाथ धोना पड़ा। कहने का आशय ये है कि इसके लिए ईमानदारी से जनजागरूकता अभियान चलाया जाना की जरूरी है। आंकड़ों का खेल खेलते हुए हम जनसंख्या को नियंत्रित नहीं कर सकते हैं और न ही एक दिन जनसंख्या दिवस पर लेक्चर देकर, फेरियां लगाकर अथवा बच्चों की प्रतियोगिताएं करा कर जनसंख्या की बढ़ती दर की गंभीरता के प्रति प्रभावी कदम उठा पाएंगे। सिर्फ एक दिन नहीं, बल्कि 365 दिन इस बात की जरूरत है कि हम उन लोगों में जनसंख्या-नियंत्रण की जागरूकता लाएं जो आज भी लिंगभेद और जितने हाथ उतनी कमाई के सिद्धांत पर जी रहे हैं। हमारी सरकार जिस बड़े दृष्टिकोण और योजनाओं को ले कर चल रही है वह भी तभी फलीभूत हो सकेगा जब संसाधनों और जनसंख्या में संतुलन बना रहेगा।
लेखिका डॉ. शरद सिंह, वरिष्ठ साहित्यकार हैं
मकरोनिया, सागर (मध्य प्रदेश)

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