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रेडियो सुनने के लिए लेना पड़ता था लाइसेंस, चुकाना पड़ता था शुल्क

विश्व रेडियो दिवस पर विशेष

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To listen to the radio, the license had to be paid;

To listen to the radio, the license had to be paid;

बृजेश चंद्र सिरमौर
शहडोल. ‘ये आकाशवाणी का दिल्ली केंद्र है, और आप सुन रहे हैं...’ ये मधुर और नजाकत भरे शब्द सुनने के भी कभी पैसे लगते थे। बाकायदा लाइसेंस लेना पड़ता था। लाइसेंस न लो तो अपराध माना जाता था। इसमें भी दो तरह के लाइसेंस लेने पड़ते थे घरेलू और व्यवसायिक। यानि आप यदि घर के बाहर सामूहिक रूप से रेडियो सुनना चाह रहे हैं तो उसके लिए अलग से शुल्क देना पड़ता था। रेडियो सुनने के लिए लाइसेंस डाक विभाग जारी करता था। हालांकि टीवी के पदार्पण और लोकप्रियता के साथ ही रेडियो को लाइसेंस मुक्त कर दिया गया। उसको बचाने के लिए सरकार ने कई उपाय किए। इन्हीं प्रयासों का नतीजा है कि आज रेडियो भी हाइटेक हो गया और अब मोबाइल पर भी उपलब्ध है। पांच दशक पहले रेडियो सुनने के लिए डाक विभाग भारतीय तार अधिनियम 1885 के अंतर्गत लाइसेन्स के रूप में जारी करता था। यह लाइसेंस उसी प्रकार का होता था, जिस प्रकार से आज वाहन चलाने, हथियार रखने या अन्य किसी काम के लिए लाइसेंस बनाना पड़ता है। उस दौर में बिना लाइसेंस के रेडियो सुनना अपराध माना जाता था। इसमें सजा के तौर पर वायरलेस टेलीग्राफी एक्ट 1933 के तहत सजा का प्रावधान किया गया था। रेडियो सुनने के लिए दो प्रकार के लाइसेंस उपलब्ध कराए जाते थे, घरेलू और वाणिज्यिक। यानी घर पर बैठकर रेडियो सुनना है तो घरेलू यानि डोमेस्टिक और सामूहिक रूप से कई लोगों को रेडियो सुनाना है तो वह वाणिज्यिक यानि कॉमर्शियल। दोनों के लिए अलग-अलग प्रकार का शुल्क होता था, वहीं लाइसेंस पासपोर्ट के जैसी किताब की तरह दिखता था। डाक विभाग द्वारा इस पर डाक टिकट लगाया जाता था, जिसकी अवधि एक साल की होती थी। लाइसेंस पर निर्धारित शुल्क का आकाशवाणी लाइसेंस टिकट लगाकर इसे प्रतिवर्ष रिन्यूवल कराया जाता था और बिना लाइसेंस के रेडियो कार्यक्रमों को सुनना कानूनी अपराध माना जाता था और आरोपी को वायरलेस टेलीग्राफी एक्ट 1933 के अंतर्गत दंडित किए जाने का भी प्रावधान था। लाइसेंस में रेडियो का मैक और मॉडल का भी उल्लेख किया जाता था। उस समय रेडियो के सिग्नल भी काफी वीक हुआ करते थे, जिसके लिए टेलीविजन की भांति ही छत के ऊपर एक एंटीना भी लगाना पड़ता था।
अस्सी के दशक में रेडियो से हटाया गया शुल्क
जानकारों ने बताया कि एक समय ऐसा भी आया जब रेडियो की लोकप्रियता कम होने लगी और 1980 के बाद तेजी से नए-नए मनोरंजन के साधन बढ़ते गए और इस कारण रेडियो लोगों से दूर होता चला गया। घरों में टीवी बढ़ रहे थे और एक बड़ी आबादी रेडियो से दूर होती दिख रही थी। तब रेडियो सुनने के लिए लाइसेंस को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया। इसके पीछे वजह थी कि अस्सी के दशक में सरकार को किसी तरह रेडियो का अस्तित्व बचाना था।
गांवों में रेडियो सुनने के लिए लगता था मजमा
जानकार बताते हैं कि देश की आजादी के तीन दशक बाद भी रेडियो लोगों के लिए नई चीज था। गांव में एकाध घर में रेडियो होता था और पूरा गांव शाम के समय इसे सुनने के लिए उस घर के बाहर जमा हो जाता था, जिनके पास रेडियो था। लोग रेडियो पर खबरें, लोकगीत और खास दिन जैसे 15 अगस्त, 26 जनवरी या किसी त्योहार पर रेडियो पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम चाव से सुनते थे। उस जमाने में रेडियो पर सबसे ज्यादा खबरों के बुलेटिन सुनने का चाव था।
बिनाका गीतमाला सुपर हिट रहा
पचास के दशक में सिलोन रेडियो पर रात 8 से 9 बजे तक चलने वाला गीतों का कार्यक्रम बिनाका गीतमाला शहर के लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र था। एक घंटे तक चलने वाले इस कार्यक्रम में उस जमाने की फिल्मों के मशहूर गाने जारी किए जाते थे। लोग इस कार्यक्रम का बेसब्री से इंतजार करते थे जिस दिन बिनाका गीत माला आना होता था। लोग अपने काम जल्दी निपटा फ्री होकर इसे सुनते थे। मरफी और फिलिप्स कंपनी के रेडियो उस जमाने में मशहूर थे।

लाउस्पीकर में बजता था रेडियो
79 वर्षीय सेवानिवृत्त परियोजना अधिकारी केपीएस महेन्द्रा ने बताया कि साठ से सत्तर के दशक में जब मैं इंदौर में पदस्थ था, तब वहां पार्क और सार्वजनिक स्थानों पर लाउडस्पीकर लगाकर लोगों को रेडियों सुनाया जाता था। हमारे जमाने में घरेलू रेडियो के लिए १५ रुपए और कामर्सियल रेडियो के लिए २५ रुपए प्रतिवर्ष लाइसेंस शुल्क लगता था।

होटल में बैठकर सुनते थे रेडियो
78 वर्षीय सेवानिवृत्त व्याख्याता अशोक खरे ने गुजरे जमाने को याद करते हुए बताया कि उन दिनों लोगों में रेडियो सुनने का बड़ा क्रेज था और हमारे घर में रेडियो नहीं था, तो हम होटल में जाकर रेडियो सुनते थे। मैं 63 वर्षों से लगातार रेडियो सुनता चला आ रहा हूं। देवकीनंदन पाण्डेय का समाचार वाचन, अमीन सयानी का बिनाका गीतमाला और जसदेव ङ्क्षसह की कमेन्ट्री लाजबाब थी।

इनका कहना है
पहले घरेलू रेडियो लाइसेन्स के लिए १५ और कामर्सियल रेडियो के लिए २५ रुपए प्रतिवर्ष शुल्क लगता था। जो वर्ष १९८७ से बंद कर दिया गया है।
एसएम ईराकी, पोस्टमास्टर, शहडोल