मेवाड़ राज-परिवार के भींडर ठिकाने की ओर से बनाया गया मंदिर
भगवान श्री कृष्ण को सांवलिया या सांवरिया सेठ भी कहा जाता है। देशभर से श्रद्धालु राजस्थान इनका दर्शन करने आते हैं। यहां हर रोज हजारों लोग दर्शन करने आते हैं। चित्तौडग़ढ़ के मंडफिया स्थित यह मंदिर 450 साल पुराना है।
भगवान को बनाते हैं बिजनेस पार्टनर
व्यापार जगत में सांवरिया सेठ की ख्याति इतनी अधिक है कि लोग अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए उन्हें अपना बिजनेस पार्टनर तक बनाते हैं। लोग अपनी खेती, संपत्ति और कारोबार में उन्हें हिस्सेदारी देते हैं। और हर माह कमाई में से एक भाग भी इक्ट्ठा करके यहां पर नियमित रूप से चढ़ाने के लिए आते हैं।
मंदिर की कहानी भी है बेहद रोचक
कहा जाता है कि मीरा बाई सांवलिया सेठ की ही पूजा किया करती थीं जिन्हें वह गिरधर गोपाल भी कहती थीं। मीरा बाई संतों की जमात के साथ भ्रमण करती थीं जिनके साथ श्री कृष्ण की मूर्तियां रहती थीं। दयाराम नामक संत की जमात के पास भी ऐसी ही मूर्तियां रहती थीं।
एक बार औरंगजेब की सेना मंदिर में तोड़-फोड़ करते हुए मेवाड़ पहुंची। वहां उसकी मुगल सेना को उन मूर्तियों के बारे में पता लगा तो वह उन्हें ढूंढने लगे। यह जानकर संत दयाराम ने इन मूर्तियों को बागुंड-भादसौड़ा की छापर में एक वट-वृक्ष के नीचे गड्ढा खोदकर छिपा दिया।
फिर 1840 में मंडफिया ग्राम निवासी भोलाराम गुर्जर नामक ग्वाले को सपना आया की भादसोड़ा-बागूंड गांव की सीमा के छापर में भगवान की 4 मूर्तियां भूमि में दबी हुई हैं। खुदाई की गई तो 4 में से बड़ी मूर्ति भादसोड़ा ग्राम ले जाई गई, इस समय भादसोड़ा में प्रसिद्ध गृहस्थ संत पुराजी भगत रहते थे।
उन्हीं के निर्देशन में उदयपुर मेवाड़ राज-परिवार के भींडर ठिकाने की ओर से सांवलिया जी का मंदिर बनवाया। यह सांवलिया सेठ प्राचीन मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंझली मूर्ति को खुदाई की जगह स्थापित किया जिसे प्राक्ट्य स्थल मंदिर कहा जाता है।
वहीं वट-वृक्ष के नीचे मिली सबसे छोटी मूर्ति भोलाराम गुर्जर मंडफिया ग्राम ले गए। उन्होंने घर के आंगन में स्थापित करके पूजा आरंभ कर दी। जबकि चौथी मूर्ति निकालते समय खंडित हो गई जिसे वापस उसी जगह स्थापित किया गया। सांवलिया सेठ के बारे में मान्यता है कि नानी बाई का मायरा करने के लिए स्वयं श्री कृष्ण ने वह रूप धारण किया था।