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लॉकडाउन में इमली व गुंदा फूल की सब्जी चाव से खा रहे

आदिवासी क्षेत्र में भोजन के मीनू का स्वाद ही निराला

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लॉकडाउन में इमली व गुंदा फूल की भी सब्जी चाव से खा रहे

लॉकडाउन में इमली व गुंदा फूल की भी सब्जी चाव से खा रहे

नारायण लाल वड़ेरा / शंकर पटेल . उदयपुर/कोटड़ा/गींगला. छूट्टी का दिन आता है और मंडी से सब्जी लाकर फ्रीज में धर देते है लेकिन अभी लॉकडाउन में सब्जी से लेकर खानपान में भी घरों में बहुत बदलाव आया है। आदिवासी क्षेत्र की बात करें तो वहां वैसे भी देसी तरीके से खाने का आनंद अनवरत दिखने को मिलता है लेकिन इन दिनों वैसी ही तस्वीर शहर में भी दिखने को मिल रही है। गांव में तो परिवहन के साधन बंद होने से सब्जियां पहुंच नहीं पा रही है लेकिन खेतों में जो सब्जी वहां उगाई जाती है उसे ही काम में ले रहे है लेकिन वहां अभी कच्च कैरी की चटनी पूरा समय आसानी से निकाल रही है। बात शहर की करें तो शहरों में भी इन दिनों किचन में कुछ न कुछ नया बन रहा है। बाजारों से लाई जाने वाली मिठाइया भी घर में तैयार की जा रही है। महिलाएं ही नहीं पुरुष भी इन दिनों किचन में कुछ न कुछ बनाने में लगे।

इमली व गुंदा फूल की भी सब्जी चाव से खा रहे
जब भी अकाल, महामारी या भुखमरी आई तब-तब आदिवासी समाज ने प्रकृति का साथ दिया है और आसपास की वन उपज से अपने परिवार का भरण पोषण किया है। आदिवासी क्षेत्रों में लॉकडाउन के बाद खानपान की जीवन शैली के अंतर्गत खुद के खेतों में उगाई सब्जियों का उपयोग कर रहे है वही प्रकृति द्वारा उत्पादित वस्तुओं की तरफ भी रूझान बढ़ा है। इसमें कच्चे आम की चटनी, इमली के फूल की सब्जी बनाना, गुंदा के फूल की सब्जी सहजन जिसे स्थानीय बोली में हरगू फली कहते है। नदी में उगने वाली पत्तेदार वनस्पति जिसे नला की भाजी कहते है उसे अपने मीनू में शामिल करते हुए कठिन परिस्थितियों में ये लोग भूख शांत कर देते है। सीमित संसाधनों एवं समय के साथ जंगलो में ही रहकर जीविकोपार्जन करते है। ग्रामीण एवं जंगल इलाकों के आदिवासी समाज के लोगो को सामान एवं सब्जी खरीदने के लिए बाजार आने जाने में 20 या 30 किमी पैदल चलना पड़ता हैं। ऐसे में ये लोग एक तो बिना तेल के ही कच्ची केरी को कूटकर कड़ी बना लेते है और दूसरा मिर्च नमक में कच्ची केरी कूटकर रोटी के साथ पूरा परिवार खाना खा लेता है।

महुआ का भोजन में उपयोग महुआ के ढोकले
आदिवासी क्षेत्र में महुआ के पेड़ अनगिनत पाए जाते है। मार्च, अप्रैल महीने में महुआ के फूल गिरना शुरू हो जाते है। शराब के अलावा इसे भोजन बनाने में भी उपयोग किया जाता है। इन फूलों को एकत्रित कर सफाई करने के बाद खाने के हिसाब से इन्हें हांडी या बर्तन में उबाल लेते है। बाद में गेंहू के आटे में बारीक मिक्स कर ढोकले बनाये जाते है। जिन्हें चटनी या घी के साथ खाएं जाते है। जनजाति समाज मे गर्मी के दिनों में जब भी घर पर कोई मेहमान आता है तो उन्हें आथित्य सत्कार में ढोकले परोसे जाते है।

कांदा, केरी की चटनी ज्यादा खा रहे
गींगला पसं. मेवल क्षेत्र में जहां अनाज और दूध उत्पादन होता है वहां लॉकडाउन के चलते खानपान भी प्रभावित होने लगा है। आदिवासी क्षेत्र में मजूदर वर्ग के लिए विशेष प्रभाव पड़ा है। मजदूरी कर प्रतिदिन घर लौटते समय खाद्य सामग्री के साथ सब्जी लेकर जाते थे लेकिन लॉकडाउन के चलते ये सब बंद हो गए। इधर सब्जी विक्रेता गांवों में टोपले और वाहन लेकर भी पहुंच रहे है जिनसे सब्जी, फल भी खरीदने लगे है। वैसे गांवों में वर्षो पुरानी परम्परागत खानपान फिर से जीवंत हो उठे है। कांदा (प्याज), कच्ची केरी की चटनी और छाछ के साथ रोटी खाने लगे है।