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छपनिया अकाल में शहरवासियों को पानी पिलाने वाली माझी की बावड़ी में सीवरेज

छपनिया अकाल में शहरवासियों को पानी पिलाने वाली माझी की बावड़ी में सीवरेज

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आज भले ही हर घर नल पहुंच चुका, लेकिन अकाल और पानी की किल्लत के दौर में शहर की प्राचीन बावडिय़ां ही लोगों का गला तर करती रही। खासकर मांझी की बावड़ी व धोली बावड़ी ने तो छपनिया यानि 1956 के भंयकर अकाल व सूखे के दौर में प्यास बुझाई। जगदीश चौक और घंटाघर के मध्य स्थित मांझी की बावड़ी में सीवरेज का पानी समाहित होने से भयंकर बदबू उठ रही है। ऐसे में युवाओं ने जज्बा दिखाते हुए पौराणिक बावड़ी को साफ करने का जिम्मा उठाया है। वे उसे खाली कर रहे हैं, ताकि बदबूदार पानी बाहर निकल सके।

बावड़ी के कांच सरीखे पानी में सीवरेज मिलने से वह पूरा दूधिया रंग का हो चुका है। पिछले तीन दिन से मांझी की बावड़ी मित्र मंडल के सदस्य मुकेश कसेरा, चन्द्रशेखर सेन, योगेश वैष्णव, ललित सेन, ललित वैष्णव, कुलदीप सिंह, प्रकाश सोनी, प्रवीण सोनी, रमेश पालीवाल, बालकृष्ण पालीवाल, नवरतन सोनी व कन्हैयालाल तंबोली की टीम इसे बाहर निकालने में जुटी है। तीन दिन से वहां 24 घंटे चल रही मोटर से अब तक आधी से ज्यादा बावड़ी खाली हो चुकी है।

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पौराणिक बावड़ी में जम गई काई

बावड़ी का पानी ज्यों-ज्यों पानी उतर रहा है बदबू भी कुछ कम हो रही है। युवा टीम कांटेदार लोहे के ब्रश से सीढिय़ों और दीवारों पर जम चुकी काई को साफ करने में जुटी है। युवाओं को उम्मीद है कि बावड़ी को शीघ्र ही इसके मूल स्वरूप में ले आएंगें। युवाओं का कहना है कि पुरा महत्व की इस बावड़ी को संवार कर पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है।

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शानदार नक्काशी और तोरण द्वार

बावड़ी तक जाने रास्ता संकरा है। सीढिय़ां उतरने पर तोरण द्वार बने हैं। सीढिय़ों के दोनों और की दीवारों पर भगवान की मूर्तियां उकेरी गई हैं। पूर्व में यह बावड़ी खुली थी, लेकिन अभी इसके आसपास निर्माण होने से यह पूरी तरह से दब गई।

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