त्रिवेणी पुरातत्व संग्रहालय में प्राचीन हथियारों की सात दिवसीय प्रदर्शनी का उद्घाटन, ५ हजार वर्ष पुरानी कुल्हाड़ी भी मौजूद
उज्जैन.
भारतीय अस्त्र-शस्त्रों का इतिहास न सिर्फ हजारों वर्ष पुराना है बल्कि तत्कालीन उन्नत तकनीक का सबूत भी है। धातुओं के साथ ही कुछ क्षेत्रों में कछुए की पीठ (खोल) की ढाल बनाई जाती थी जो भारी वार को भी आसानी से झेलने की क्षमता रखती है। शस्त्र निर्माण में प्रयुक्त धातु की मजबूती और शुद्धता का विशेष महत्व था। यही कारण है कि महाभारत कालीन, लगभग ५ हजार वर्ष पूर्व के हथियार आज भी उपलब्ध हैं। भारतीय अस्त्र-शस्त्र की यह गौरव गाथा त्रिवेणी संग्रहालय में देखने को मिल रही है।
विश्व धरोहर सप्ताह 19 से 25 नवम्बर तक मनाया जाएगा। इसी उपलक्ष्य में त्रिवेणी पुरातत्व संग्रहालय में प्राचीन हथियारों की सात दिवसीय प्रदर्शनी का आयोजन किया गया है। शुक्रवार प्रदर्शनी का उद्घाटन मुख्य अतिथि पुरातत्व विभाग सेवा निवृत्त उप संचालक डॉ.प्रकाशेंद्र माथुर ने किया। यह प्रदर्शनी अश्विनी शोध संस्थान महिदपुर के प्रभारी आरसी ठाकुर के सौजन्य से लगाई गई है। प्रदर्शनी में प्रवेश नि:शुल्क रखा गया है। संग्रहालय सुबह ९ से शाम ५ बजे तक खुला रहेगा। उद्घाटन अवसर पर त्रिवेणी कला एवं पुरातत्व संग्रहालय के प्रभारी संग्रहाध्यक्ष योगेश पाल, देवीसिंह राठौर, आदित्य चौरसिया, राहुल सांखला मौजूद थे।
पीतल की कुल्हाड़ी, दुश्मन पहचाने वाली डर्टगन
प्रदर्शनी में ५ हजार वर्ष पूर्व से लेकर १८५७ के संग्राम के योद्धाओं द्वारा उपयोग किए जाने वाले हथियार मौजूद हैं। इसमें तांबे की बनी करीब ५ हजार वर्ष पुरानी कुल्हाड़ी है जो वर्तमान में भी कुछ साल पहले जैसी ही नजर आती हैं। हाथी दांत से बना सैकड़ों वर्ष पुरान डर्टगन है जिसका उपयोग शत्रुओं को चिन्हित करने में किया जाता था। डेढ़-दो हजार वर्ष पुरानी कछुए की ढाल, पांच हजार वर्ष पुराने डेढ़ दर्जन से अधिक प्रकार के तीर, अंग्रेजों के विरुद्ध प्रयोग किए गए विस्फोटक गोले, छोटी तोप, बारूद दानी, बंदुक में प्रयुक्त सीसे की गोलियां,विभिन्न प्रकार के मुश्ठी, खंजर, कटार, फरसे और भाले आदि मौजूद हैं। पांच किलो वजनी तक के लोह कवच भी प्रदर्शनी में नजर आ रहे हैं। यहां सैकड़ों वर्ष पुराने बेहद जटील ताले भी हैं जो उस समय की सुरक्षा व्यवस्था में तकनीक और विज्ञान को प्रदर्शित कर रहे हैं।