
पार्टी सिंबल व मतदाता
डॉ. अजय कृष्ण चतुर्वेदी
वाराणसी. नगर निगम के मेयर पद का चुनाव इस बार पिछले 22 सालों से कहीं अलग है। दो पुराने दिग्गज घरानों के बीच हो रहे इस चुनाव को लेकर शहर में जार-ए-बहस शबाब पर है। चाय-पान की दुकान हो या कोई चट्टी चौराहा, चर्चा में मेयर प्रत्याशी के साथ उनका घराना है। वैसे ज्यादातर लोग अब भी मेयर प्रत्याशियों पर कम उनके घरानों को लेकर ज्यादा चर्चा कर रहे हैं। हालांकि इस जार-ए-बहस में कोई भी समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी को कमतर करके नहीं आंक रहा। ऐसे में लड़ाई शुरू से ही त्रिकोणात्मक दिख रही है। वैसे बहुजन समाज पार्टी ने भी इस दफा अपनी दस्तक दी है। हो सकता है वह छुपा रुस्तम की तरह अंतिम समय में कुछ चौंकाने वाला समीकरण लेकर उभरे। लेकिन जार-ए-बहस दो घरानों पर कहीं ज्यादा ही दिख रही है। बता दें कि 2012 के चुनाव मे भाजपा ने वाराणसी में मेयर सीट पर लगातार चौथी बार कब्जा जमाया था। तब भाजपा के राम गोपाल मोहले ने 1,32,800 वोट के साथ जीत हासिल करते हुए कांग्रेस के डॉ. अशोक कुमार सिंह (70,683 वोट) हराया था। अब यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है ऐसे में बीजेपी पर अपनी जीत का सिलसिला जारी रखने की बड़ी चुनौती भी है। वैसे तमाम विरोधाभाषों के यह चुनाव भी मुद्दा विहीन है। घरानों और जातीय समीकरण ही इस चुनाव में भी हावी रहने की उम्मीद जताई जा रही है।
शहर में चुनाव प्रचार की बात करें तो मीडिया से लेकर चट्टी चौराहे तक सबसे ज्यादा शोर है कांग्रेस का। सकारात्मक या नकारात्मक टिप्पणी हो या अंतरकलह चर्चा में कांग्रेस ही ज्यादा है। इस बीच पूर्व सांसद डॉ राजेश मिश्र इस मेयर चुनाव को भी उस संसदीय चुनाव की तरह मोड़ने में जी जान से लगे हैं जो उनके और शंकर प्रसाद जायसवाल के बीच हुआ था। बता दें कि डॉ मिश्र और स्व. शंकर प्रसाद जायसवाल दो बार आमने-सामने हो चुके हैं और दोनों को एक-एक मुकाबले में जीत मिली। वह दूसरा मुकाबला जिसमें डॉ मिश्र को फतह हासिल हुई थी वह उसी तरह का माहौल बनाना चाहते हैं इस बार। इसके लिए उन्होंने मुस्लिम बहुल इलाकों में अपने उन साथियों के साथ चहल कदमी की है जिनकी मुस्लिम मतों के बीच अच्छी खासी पैठ है। साथ ही वह युवा मेयर प्रत्याशी के चेहरे को युवाओं के बीच चर्चित करने में जुटे हैं जैसे उन्होंने खुद को पेश किया था। बता दें कि तब वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र नेता रहे, छात्रसंघ उपाध्यक्ष के बाद अध्यक्ष पद के लिए संघर्षरत थे। युवाओं के बीच उनकी अच्छी खासी पैठ थी जिसका उन्हें लाभ मिला था। अब वह मेयर प्रत्याशी शालिनी यादव को उसी रूप में पेश करने में जुटे है। आम सभाओं में वह शालिनी को बनारस की बहू नहीं बेटी बता रहे हैं। इसके पीछे शालिनी का बीएचयू स्टूडेंट होना दर्शया जा रहा है। वह उसी रूप में पेश भी हो रही हैं। उनके पास मीडिया के सवालों का जवाब है। आमजन के बीच भी वह खुद को बनारस की बहू के साथ बेटी के रूप मे भी पेश कर रही हैं। एक खास बात यह कि अपने कुनबे से ज्यादा खुद पर भरोसा कर रही हैं। पार्टी पर एतबार जता रही हैं। पार्टी की खेमेबंदी से ज़ुदा वह हर खेमे के साथ नजर आ रही हैं। गर यह कहा जाए कि प्रत्याशी कई मौकों पर पार्टी को एकजुट करती नजर आ रही हैं तो अतिशयोक्ति न होगी।
विधानसभा के मुस्लिम बेल्ट का एक चक्कर काट चुके डॉ मिश्र का दूसरा कदम यादव मतों में सेंधमारी करना है। लेकिन कांग्रेस का अंतरकलह उसके लिए कहीं ज्यादा नुकसान दायक साबित हो सकता है। खास तौर पर हाल के दिनों में जो परिवर्तन शहर में हुआ है उसका कितना सकारात्मक असर होगा यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन फौरी तौर पर महानगर अध्यक्ष जो एक पार्षद प्रत्याशी भी है इन अतिरिक्त जिम्मेदारियों से उनके मनोबल पर कहीं न कहीं प्रतिकूल प्रभाव जरूर डाल सकता है। साथ ही जो चर्चा शहर में है उसके मुताबिक शहर अध्यक्ष पर ऐन चुनाव के वक्त भरोसा न जताने का संदेश वोटरों पर भी पड़ सकता है। लोगों का कहना है कि परिवर्तन करना था या अतिरिक्त जिम्मेदारी किसी को देनी ही थी तो यह काम चुनाव से पहले ही हो जाना चाहिए था। इससे डैमेज कंट्रोल नहीं होगा बल्कि और बढ़ेगा। वैसे ही पार्टी रामनगर को लेकर पहले से चर्चाओं में है। इन विपरीत परिस्थितियों में पार्टी के दिग्गज आम मतदाओं को कितना रिझा पाते हैं यह एक दिसंबर को ही पता चलेगा। इस बीच पुरनिये कहते हैं कि कांग्रेस और डॉ मिश्र को नहीं भूलना चाहिए कि जब डॉ मिश्र बनारस के सांसद बने थे तो उसमें उनके व्यक्तित्व के साथ मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल का परोक्ष सहयोग भी अहम था। ठीक उसी तरह जैसे पंडित कमलापति त्रिपाठी और राजनारायण के संसदीय मुकाबे में था।
श्यामलाल यादव का व्यक्तित्व
जहां तक श्यामलाल यादव के व्यक्तित्व की बात है तो लोगों का मानना है कि वह निःसंदेह एक शालीन व्यक्तित्व के मालिक थे। प्रदेश से लेकर केंद्र तक में मंत्री रहे। राज्यसभा के उपसभापति रहे। संसद या विधानसभा में उन्होंने अपने क्षेत्र के लिए कई प्रस्ताव पेश किए। लंबी बहस की। वह कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में शामिल रहे। इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक उन्हें सम्मान देते रहे तो यह उनकी शालीनता ही थी। लेकिन आमजन के बीच जो उनकी छवि है वह बेहद अंतरमुखी थे। लोग उनसे जुड़ते थे तो उनकी शालीनता के चलते जुड़ते रहे। वैसे अपनी बिरादरी मे उनकी अच्छी साख व पैठ थी। यादव बिरादरी उन्हें सम्मान देती रही। वैसे अन्य बिरादरियों में भी वह सम्मानजक नेता रहे। मौजूदा राजनीतिक परिवेश से बिल्कुल अलग। इसका लाभ काफी हद तक उनकी तेज तर्रार बहू शालिनी यादव को मिल सकता है।
बीजेपी की तैयारी और शंकर प्रसाद जायसवाल
जहां तक बात बीजेपी की है तो वह बेहत शांत तरीके से अंदर अंदर काम कर रही है। लंबा चौड़ा संघ व बीजेपी का कैडर अपने हिसाब प्रत्याशी के लिए लगा है। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि जिस तरह से कांग्रेस ने श्यामलाल यादव के नाम पर पार्टी के पुरनियों को सहेजने की कोशिश की है उसी तरह बीजेपी ने शंकर प्रसाद जायसवाल के नाम पर उस बड़ी लॉबी को सहेजने का भरपूर प्रयास किया है जो 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से खुद को पार्टी में उपेक्षित महसूस कर रहे थे। ये वो लॉबी है जो भाजपा के जन्मकाल से उसके साथ है चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थितियां आईं पर उन्होंने पार्टी को कहीं न कहीं से मजबूती ही प्रदान की है। ऐसे लोगों की तादाद बीजेपी में बड़ी है। शंकर प्रसाद जायसवाल की बहू के साथ वो लोग भी दिख रहे हैं जो पिछले विधानसभा चुनाव में हरिश्चंद्र श्रीवास्तव 'हरीश जी' के बेटे के साथ खड़े होते नहीं दिख रहे थे। लेकिन इस बार वो सारे लोग शंकर प्रसाद जायसवाल की बहू के साथ खड़े हैं। वे जी जान से जुटे हैं कि किसी तरह पूर्व सांसद परिवार को एक बार फिर से इस शहर में प्रतिष्ठित कर दिया जाए। बता दें कि इसमें वो लोग भी हैं जो कभी शंकर प्रसाद जायसवाल की मुखालफत किया करते थे या कहीं न कहीं उनकी हार की वजह भी बने थे। दूसरे एक और बात जो मृदुला जायसवाल के पक्ष में जाता दिख रहा है वह है उनके ससुर शंकर प्रसाद जायसवाल का जनता से सीधे जुड़ाव। सभासद से राजनीतिक करियर शुरू करने वाले शंकर प्रसाद जायसवाल का हर उस शख्स से सरोकार था जो बनारसी था। चाहे वह किसी दल का रहा हो। कई मसलों पर वह राजनीतिक सीमाओं को तोड़ते हुए भी दिखते रहे। उनका हंसमुख चेहरा और उनकी साफगोई यानी विशुद्ध काशीवासी का जीता जागता नमूना। अपनी वैचारिकी के साथ वह प्रतिद्वंद्वियों के बीच भी उतने ही लोकप्रिय रहे जितने अपनी पार्टी में। यह एक बहुत बड़ा फैक्टर मृदुल के पक्ष में है। हालांकि बीजेपी सरकार के नोटबंदी और जीएसटी के बड़े फैसलों से चोट खाया व्यापारी वर्ग अब तक खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। वो सबकुछ के बावजूद खुद को बीजेपी में रहते हुए भी पूरे मन से नहीं जोड़ पा रहे हैं। उनके गुस्से को पार्टी अंतिम वक्त तक कितना ठंडा कर पाती है यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन यह एक बड़ा माइनस फैक्टर बीजेपी के लिए है जरूर। फिलहाल इसकी काट कम से कम स्थानीय नेताओं के पास नहीं दिख रही है। ले दे कर अगर बीजेपी इस फैक्टर को मैनेज कर लेती है तो वह उसके लिए काफी लाभदायक स्थिति होगी।
समाजवादी पार्टी की तैयारी
बात करते हैं समाजवादी पार्टी की। वह बहुत ही संजीदा तरीके से बगैर हो हल्ला किए अपने प्रचार में लगी है। वह अंदर ही अंदर अपने परंपरागत मतों को सहेजने का प्रयास कर रही है। अभी प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम ने पिछले दो दिनों में नगर निगम सीमा क्षेत्र का दौरा कर जातीय समीकरण दुरुस्त करने का भरपूर प्रयास किया है। अभी सांसद धर्मेंद्र यादव भी आने वाले हैं। लेकिन शहर उत्तरी और शिवपुर विधानसभा के सीमा क्षेत्र वाले वार्डों में सपा की जिला पंचायत अध्यक्ष रहीं अपराजिता सोनकर का ऐसे मौके पर पार्टी छोड़ना सपा के लिए काफी घातक साबित हो सकता है। इसके कयास लगाए जाने लगे हैं और पार्टी भी अंदर ही अंदर इसे लेकर खासी चिंतित भी नजर आ रही है। अपराजिता को लेकर सपा को जो जोर का झटका लगा है वह हर सपाई के चेहरे पर साफ परिलक्षित होने लगा है। हालांकि पार्टी के दिग्गज नेता इस झटके को झटक कर आगे बढ़ने की तैयारी में जुटे हैं लेकिन वह इससे कितनी जल्दी उबर पाते हैं यह निर्णायक होगा। इस बीच पार्टी को अपने उस परंपरागत वोट बैंक को सहेजने की बड़ी चुनौती है जिस पर दूसरे प्रतिद्वंद्वी दल काग दृष्टि लगाए बैठे हैं। खास तौर पर इसमें युवा ब्रिगेड को बड़ी लकीर खींचनी होगी। ऐसा राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं।
जातीय समीकरण और पुराने परिणाम
जहां तक जातीय समीकरणों को साधने की बात है तो राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यादव मत तीन जगह बंट सकते हैं। यह अभी की स्थिति है। कयास लगाए जा रहे हैं कि परंपरागत यादव मतों को कोई कितना भी कुछ कर ले वह समाजवादी पार्टी से टूटने नहीं जा रहा है। वो मुलायम सिंह और अखिलेश यादव को जानते हैं। ऐसे में एक बड़ा यादव तबका सपा प्रत्याशी साधना गुप्ता को ही अपनी पसंद बता रहा है। कुछ यादव मत बीजेपी के साथ भी जा रहा है। ऐसा राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं। लेकिन माना जा रहा है कि एक बड़ा तबका ऐसा भी है यादवों का जो जातीय आधार पर शालिनी यादव के साथ पूरे दमखम के साथ खड़ा है। यहां बता दें कि नगर निगम सीमा में करीब 80 हजार यादव मतदाता हैं। इन मतदाताओं का रुख निर्णायक भी हो सकता है। वह भी तब जब मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण एक तरफ हो। लेकिन राजनीतिक विश्लेषक अतीत के चुनाव परिणामों का उदाहरण देते हुए एक चीज साफ कर रहे हैं कि अगर यह प्रचारित हो जाता है कि मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण कहीं एक तरफ होने जा रहा है तो इसका लाभ कहीं न कहीं बीजेपी को ही मिलेगा। वो डॉ मुरली मनोहर जोशी, मोख्तार अंसारी, राजेश मिश्र वाले संसदीय चुनाव परिणाम का उदाहरण सामने रखते हैं। ऐसे में जो भी दल मुस्लिम-यादव गठजोड़ को जितना हवा देगा नुकसान उसी का होगा चाहे वह कांग्रेस हो या सपा और इसका लाभ कहीं न कहीं बीजेपी को मिलेगा। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक यह भी मान कर चल रहे हैं कि गैर भाजपा दल ऐसी गलती दोहराने की कोशिश भी नहीं करेंगे।
निगम सदन की क्या हो सकती है स्थिति
वैसे एक चर्चा जो आम होती जा रही है कि इस दफा मेयर चाहे जिस पार्टी का हो पर निगम सदन की तस्वीर बदल सकती है। यहां बीजेपी को झटका लग सकता है। वैसे भी बनारस के मिजाज को जानने और पहचानने वाले कहते हैं कि बनारसी शिख से नख तक हमेशा एक के साथ नहीं रहते। इस बार का विधानसभा चुनाव परिणाम अपवाद है अन्यथा इसके पहले तक यही देखा जाता रहा है कि जिस पार्टी की सरकार यूपी में बनी बनारस ने उसे खारिज कर दिया। ऐसे में इस तरह का परिणाम वाराणसी नगर निगम में देखने को मिल जाए तो बड़ी बात न होगी।
Published on:
19 Nov 2017 02:48 pm
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