सभाष पार्क मैदान की है बात
शहर के प्रमुख जूता उद्यमी पूरन डाबर ने बताया कि मैं अपने को धन्य मानता हूं कि ऐसे राजनेता, राष्ट्र नेता, महान देश भक्त जिसकी रग रग में देश बसता था, उनको श्रद्धांजलि देने का अवसर मिल रहा है। उन्होंने बताया कि अटल जी को मुझे अपने जीवन में नज़दीक बैठने एवं अनेक बार सुनने का मौका मिला। उन्होंने अटल जी से जुड़े कुछ संस्मरण बताये, जिसमें 1972 की ये सभा खास थी।
शहर के प्रमुख जूता उद्यमी पूरन डाबर ने बताया कि मैं अपने को धन्य मानता हूं कि ऐसे राजनेता, राष्ट्र नेता, महान देश भक्त जिसकी रग रग में देश बसता था, उनको श्रद्धांजलि देने का अवसर मिल रहा है। उन्होंने बताया कि अटल जी को मुझे अपने जीवन में नज़दीक बैठने एवं अनेक बार सुनने का मौका मिला। उन्होंने अटल जी से जुड़े कुछ संस्मरण बताये, जिसमें 1972 की ये सभा खास थी।
1972 की सभा में जमकर हंसे लोग
पूरन डाबर ने बताया कि 1972 में आगरा के सुभाषपार्क में अटल बिहारी वाजपेयी की सभा थी। सभा में समय से ढ़ाई घंटा देरी से वे पहुंचे। धूप और इंतज़ार में जनता बिलबिला रही थी। अटल जी जैसे ही आये, जनता ने उनका जोरदार नारों के साथ स्वागत किया। अटल जी ने भाषण शुरू किया और कहा कि मुझे मालूम है मैं 2.30 घंटा देर से हुं। मुम्बई से फ़्लाइट 2 घंटा देर से उड़ी बर्ड हिट बताया गया, जांच का विषय हो सकता है, लेकिन इंतज़ार का भी अपना मज़ा है। उन्होंने कहा कि सुना है परसों इंदिरा जी भी इसी मैदान पर थीं। अभी मैं मुम्बई था वहां से भी होकर निकल गयीं थीं। पता नहीं वो मेरे आगे आगे चल रही हैं या मै उनके पीछे पीछे। बस ये कहते ही ठहाके ही ठहाके। इंतज़ार का ग़ुस्सा समाप्त। यह बात अलग है कि उनके इस कथन पर लगभग एक माह तक सम्पादक के नाम पत्र का सिलसिला चला जिसका एक बड़ा हिस्सा पूरन डाबर भी थे।
पूरन डाबर ने बताया कि 1972 में आगरा के सुभाषपार्क में अटल बिहारी वाजपेयी की सभा थी। सभा में समय से ढ़ाई घंटा देरी से वे पहुंचे। धूप और इंतज़ार में जनता बिलबिला रही थी। अटल जी जैसे ही आये, जनता ने उनका जोरदार नारों के साथ स्वागत किया। अटल जी ने भाषण शुरू किया और कहा कि मुझे मालूम है मैं 2.30 घंटा देर से हुं। मुम्बई से फ़्लाइट 2 घंटा देर से उड़ी बर्ड हिट बताया गया, जांच का विषय हो सकता है, लेकिन इंतज़ार का भी अपना मज़ा है। उन्होंने कहा कि सुना है परसों इंदिरा जी भी इसी मैदान पर थीं। अभी मैं मुम्बई था वहां से भी होकर निकल गयीं थीं। पता नहीं वो मेरे आगे आगे चल रही हैं या मै उनके पीछे पीछे। बस ये कहते ही ठहाके ही ठहाके। इंतज़ार का ग़ुस्सा समाप्त। यह बात अलग है कि उनके इस कथन पर लगभग एक माह तक सम्पादक के नाम पत्र का सिलसिला चला जिसका एक बड़ा हिस्सा पूरन डाबर भी थे।