
Ashok rawat
आगरा। कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्यकार सदैव संवेदनशील होता है। देश और समाज की चिन्ता करता है। स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में साहित्यकारों ने भी अहम भूमिका निभाई। आजादी के बाद साहित्यकारों की भूमिका बदली। अब वे समाज और राजनीतिज्ञों को आइना दिखाते रहते हैं। मंच पर साहित्य का स्थान विद्रूपता ने ले लिया। इन कठिन परिस्थितियों में भी साहित्य को बचाए रखना बड़ी चुनौती है। इसे स्वीकार किया प्रसिद्ध गजलकार अशोक रावत (Ashok rawat) ने। दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar) की तरह वे जनता की आवाज बन गए है।
शहरों की स्थिति पर उनका एक शेर देखिए-
जाम सड़कों पर लगा है, चोक सीवर, बंद नाले
जिस तरफ भी देखिएगा ढेर कूड़े के पड़े हैं।
जनता की आवाज बनने के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने उन्हें दुष्यंत कुमार सम्मान से नवाजा है। पत्रिका (Patrika) के विशेष कार्यक्रम परसन ऑफ द वीक (Person of the week) में हमने बात की अशोक रावत से। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी (Oxford University) प्रेस ने सीबीएसई की कक्षा आठ के लिए प्रकाशित पुस्तक अंकुर हिन्दी पाठमाला में अशोक रावत की गजल को पाठ्यक्रम में शामिल किया है। साहित्य और गजल (Gazhal) को लेकर अशोक रावत से लम्बी बातचीत हुई। प्रस्तुत हैं मुख्य अंशः-
पत्रिकाः गजल कुछ खास लोगों की विधा है लेकिन आपने अपनाया, क्यों?
अशोक रावतः जब तक गजल उर्दू से जुड़ी हुई थी, तब तक ये कुछ खास पढ़े-लिखे लोगों तक सीमित थी। दुष्यंत कुमार के बाद से हिन्दी भाषा ने जब इस विधा को अपनाया तो इसकी पहुंच खासजन से आमजन तक हो गई। आज की स्थिति तो यह है कि पढ़ी जाने वाली कविता के नाम पर सिर्फ गजल ही ऐसी विधा है जो सम्मान प्राप्त करती है।
पत्रिकाः गजल और कविता में क्या अंतर समझते हैं?
अशोक रावतः कविता की कोई भी विधा हो गीत या गजल या नज्म, उनकी विशिष्टताओं को तत्कालीन साहित्यकारों ने दिखाया और जीवन से जोड़ा तो लोग प्रभावित हुए। इससे उनका स्थान बना।
पत्रिकाः दुष्यंत कुमार ने ही गजल को आम जनता से जोड़ा लेकिन बाकी लोगों ने शराब, शवाब, मोहब्बत तक सीमित कर दिया?
अशोक रावतः ये जो आप बात कर रहे हैं यह उर्दू गजल की बात थी। जैसे समय परिवर्तन हुआ तो कथ्य में भी परिवर्तन हुआ। दुष्यंत के समकालीन साहित्यकार जैसे कैफी आजमी, निदा फाजली, शहरयार, बशीर बद्र को लें तो पाएंगे कि उनकी गजलों में भी हमारे जीवन के समकालीन सरोकार और संघर्ष मौजूद थे। दुष्यंत कुमार जब हिन्दी में गजल लेकर आए तो इमरजेंसी का समय था। इमरजेंसी के विरोध में जनता भी थी। उनकी गजलें जनता की आवाज बनीं, जो आज तक सुनाई जाती हैं। संसद में सत्ता और विपक्ष वाले भी प्रयोग करते हैं। उनकी गजलों का प्लेटफार्म बहुत ऊंचा है। वे देश की सीमा में बंधी नहीं हैं।
पत्रिकाः हस्तीमल हस्ती ने आपकी पुस्तक पर टिप्पणी लिखी और दुष्यंत कुमार के बराबर रखा है, लेकिन उतनी प्रसिद्धि नहीं मिली, क्यों?
अशोक रावतः मेरी प्रसिद्धि नहीं है ये कैसे कह रहे हैं? ग्लैमर से जुड़े लोगों को जानते हैं आप। जो लिख रहे हैं, उन्हें वही जानेंगे जो पढ़ेंगे। 35 साल से अधिक समय से प्रिंट मीडिया में छप रहा हूं। मेरी गजलों को हर अखबार ने छापा है।
पत्रिकाः आपकी सबसे प्रसिद्ध गजल कौन सी है?
अशोक रावतः ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित की है। वह गजल मैंने नहीं भेजी। सोशल मीडिया से प्राप्त की और मुझसे प्रकाशन की अनुमित ली। इसका कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-
फूलों का अपना कोई परिवार नहीं होता,
खुशबू का अपना कोई घर द्वार नहीं होता।
हम गुजरे कल की आँखों का सपना ही तो हैं,
क्यों मानें सपना कोई साकार नहीं होता।
इस दुनिया में अच्छे लोगों का बहुमत है,
ऐसा अगर न होता ये संसार नहीं होता।
कितने ही अच्छे हों कागज पानी के रिश्ते,
कागज की नावों से दरिया पार नहीं होता।
हिम्मत हारे तो सबकुछ नामुमकिन लगता है,
हिम्मत कर लें तो कुछ भी दुश्वार नहीं होता।
पत्रिकाः गजल का भविष्य क्या है?
अशोक रावतः भविष्य विधाओं का नहीं होता। भविष्य का संबंध जीवंत लोगों से है। कोई बात होगी तो कविता खत्म हो जाएगी। हिन्दी में कविता के शिल्प और कला पर कोई काम नहीं होता है। श्रेष्ठ रचनाकार आगरा के आनंद शर्मा, राम अवतार त्यागी का कोई नामलेवा नहीं है। चुटकुले वाले जो लोगों का मनोरंजन करते हैं, उनका नाम सब जानते हैं। मैंने जो गजल सुनाई है, उसका कोई मतलब है। तुलसी ने 16वीं सदी में चौपाइयां लिखी हैं।
पत्रिकाः तुलसी की चौपाइयां धर्म के साथ जुड़ गईं, इसलिए चल रहा है।
अशोक रावतः नहीं, यह बाद की चीज है। रामचरितमानस धार्मिक पुस्तक नहीं थी, लेकिन सामाजिक व्यवस्था का संदेश देती है। इसी कारण पूजा गृह तक पहुंची। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है।
कौन हैं अशोक रावत
अशोक रावत का जन्म 15 नवम्बर, 1953 को मथुरा के गांव मलिकपुर में हुआ। इंजीनियरिंग की डिग्री ली। भारतीय खाद्य निगम में डिप्टी जनरल मैनेजर के पद से रिटायर हैं। उनके पांच गजल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- थोड़ा सा ईमान, कोई पत्थर नहीं हैं हम, मैं परिन्दों की हिम्मत पे हैरान हूं, रौशनी के ठिकाने और क्या हुआ सवेरों का। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की पत्रिका साहित्य भारती का गजल अंक का संपादन किया। देश के सभी पत्र और पत्रिकाओं में उनकी गजलें प्रकाशित होती रहती हैं। मानसनगर, शाहगंज, आगरा में निवासरत हैं। उनकी मंशा है कि हिन्दी गजल सम्मान के साथ मंच पर स्थापित हो। वे सीधे और सहज तरीके से अपनी बात कहते हैं। उनका एक शेर-
उसे दो मील पैदल छोड़ने जाता था मैं बस तक,
मैं उसके घर गया वो गेट तक बाहर नहीं आया।
Published on:
30 Sept 2019 04:55 pm
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