पी. एस. विजयराघवन रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के दर्शन और पूजा के बिना चारधाम की यात्रा अधूरी मानी जाती है। तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले का यह टापू अपनी इसी आध्यात्मिक महत्ता के लिए विश्व प्रसिद्ध है, जहां देवी सीता ने अपने हाथों से रेत का शिवलिंग बनाया था और भगवान राम ने स्थापित किया था। रामेश्वरम में […]
पी. एस. विजयराघवन
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के दर्शन और पूजा के बिना चारधाम की यात्रा अधूरी मानी जाती है। तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले का यह टापू अपनी इसी आध्यात्मिक महत्ता के लिए विश्व प्रसिद्ध है, जहां देवी सीता ने अपने हाथों से रेत का शिवलिंग बनाया था और भगवान राम ने स्थापित किया था। रामेश्वरम में स्थित विश्व प्रसिद्ध रामनाथस्वामी मंदिर में यह ज्योतिर्लिंग है।
मंदिर में दर्शन और पूजन के लिए देशभर से श्रद्धालु आते हैं। मंदिर परिसर का नामकरण भगवान राम पर हुआ है, जिसमें तीन प्रमुख सन्निधियां रामनाथ सन्निधि, पर्वतवर्धनी अम्मन सन्निधि और सेतुमाधव सन्निधि हैं। इनके अतिरिक्त कई छोटी सन्निधियां हैं और तीन बड़ी परिक्रमाएं हैं, विशाल गोपुरम (गुम्बद) और 22 तीर्थ हैं। मंदिर दर्शन को वाले भक्त मान्यता अनुसार सभी 22 कुंडों में पवित्र स्नान करते हैं। ये कुंड देश की पवित्र नदियों और देवताओं के प्रतीक हैं। मंदिर के शिलालेख और कांस्य प्रतिमाएं एक हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन हैं।
भगवान राम की कर्मभूमि रामेश्वरम
अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि है, तो रामेश्वरम कर्मभूमि थी, जहां से उन्होंने देवी सीता को रावण की कैद से छुड़ाने के लिए लंका कूच किया था। रामेश्वरम में लंका जाने से पहले व समुद्र सेतु के निर्माण से पहले राम ने शिव की पूजा की थी। भगवान राम की शिवपूजा के दो उल्लेख मिलते हैं, पहला लंका कूच से पहले और दूसरा रावण के वध के बाद सीता के साथ वापसी के समय। माना जाता है कि भगवान राम ने तब यहां अपने हाथों से दो शिवलिंग स्थापित किए थे।
एक शिवलिंग का प्रस्तर हनुमान लाए थे
देवी सीता ने रेत से जो शिवलिंग बनाया, वही श्रीरामलिंगस्वामी या श्री रामनाथस्वामी शिवलिंग है। यह मुख्य गर्भगृह में स्थापित है, जिसके दर्शन के लिए लाखों लोग देश-विदेश से रामेश्वरम आते हैं। इसी तरह मंदिर में परिसर में भगवान राम ने श्री विश्वनाथस्वामी शिवलिंग की भी स्थापना की। यह शिवलिंग उस पत्थर का है, जिसे हनुमान काशी से लेकर आए थे।
समय-समय पर होता रहा जीर्णोद्धार
इस मंदिर को शुरुआती पांड्य वंशज, चोल वंशज तथा उत्तरवर्ती पांड्य वंशज और विजयनगर साम्राज्य के शासकों, मदुरै के नायकों, सेतुपति शासकों व नाट्टकोट्टे के नगरत्तार का संरक्षण प्राप्त था, जिन्होंने समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार भी कराया। इसी वजह से मंदिर का परिसर अत्यंत व्यापक हो गया।