Amyra death case: राजधानी जयपुर के नीरजा मोदी स्कूल में अमायरा की आत्महत्या मामले को लेकर आज 17वें दिन भी उसके माता-पिता का दर्द वही है। मासूम बच्चे भी इस घटना से टूटे हैं। उन्होंने ‘भगवान’ को चिट्ठियां लिखकर पूछा है, अमायरा क्यों चली गई…इन मासूम अक्षरों में उनके डर, दुख और दोस्त को खोने की टीस साफ झलकती है।
Amyra death case: जयपुर: डिजिटल दौर की चमक में बच्चों का बचपन चुपचाप कहीं पीछे छूटता जा रहा है। मोबाइल, इंटरनेट और एआई से भले ही वे पढ़ाई में आगे बढ़ रहे हों, लेकिन उनके भीतर उठते सवाल, डर, अकेलापन और टूटन किसी को दिखाई नहीं दे रहे।
अभिभावक व्यस्त हैं, शिक्षक लक्ष्य और परिणामों में उलझे हैं, समाज और व्यवस्था भी बच्चों की भावनाओं को समझने की फुर्सत नहीं निकाल पा रहे। जयपुर के नीरजा मोदी स्कूल में छात्रा अमायरा द्वारा आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठाए जाने की घटना ने इसी खामोशी को उजागर किया है। यह खामोशी बच्चों की है, जिसे अक्सर बड़े सुन ही नहीं पाते।
बच्चों के मन में क्या चल रहा है, वे किस दर्द से गुजर रहे हैं इसे समझने के लिए राजस्थान पत्रिका ने एक अनोखा प्रयास किया। शहर के कुछ सरकारी और निजी स्कूलों में बच्चों से ‘भगवान’ के नाम चिट्ठी लिखवाई गई। उम्मीद थी कि बच्चे अपने दिल की बात कहेंगे और उन्होंने कही भी…इतनी सच्चाई, इतनी मासूमियत और इतने दर्द के साथ कि पढ़ने वाले की आंखें खुद-ब-खुद नम हो जाएं।
किसी चिट्ठी में एक बच्ची लिखती है, मेरी सहेली गंदी बातें करती है, बैड टच करती है…मैं बहुत रोती हूं। दूसरी चिट्ठी में एक बच्चा अपने घर का नरक बन चुका माहौल बयान करता है और लिखता है, पापा की डेथ हो गई…मम्मी को चाचा, दादी और दादा परेशान करते हैं। चाचा शराब पीकर मुझे और भाई को मारते हैं।
कहीं एक बच्चा लिखता है, स्कूल में लड़के गंदी बातें करते हैं…चांटा मारा, गालियां दीं…मेरी मदद करो भगवान। तो कोई कह रहा है, मम्मी-पापा मेरी बात नहीं समझते…मेरे साथ गलत हो रहा है, क्या करूं भगवान?
इन मासूम चिट्ठियों में सपनों की छोटी-छोटी ख्वाहिशें भी हैं। सर्दियों के लिए एक स्वेटर, पढ़ाई में अच्छे नंबर, एक साइकिल, या बस…“मेरे पापा मुझे डांटे नहीं।” कुछ बच्चे अपनी तकलीफों के बीच खुद को सुधारने की गुहार भी लगा रहे हैं, मुझे फोन की लत लग गई है… इसे दूर कर दो भगवान।” कोई अपनी पढ़ाई को लेकर परेशान है, तो कोई अकेलेपन से “मुझे बहन चाहिए…मैं अकेला नहीं रहना चाहता।”
इन चिट्ठियों ने एक कड़वा सच सामने रखा है। बच्चे बोलना चाहते हैं, वे मदद चाहते हैं, लेकिन उन्हें सुनने वाला कोई नहीं। यह सिर्फ कुछ बच्चों का दर्द नहीं, बल्कि उस समाज का आईना है, जो तकनीक में तेज हो गया है, मगर बच्चों की भावनाओं को समझने में धीमा पड़ता जा रहा है।