पत्रिका की इन्वेस्टिगेशन में खुलासा हुआ कि यात्रियों की जान से खिलवाड़ का खेल बस की बॉडी बनाते वक्त ही शुरू हो जाता है। 15 से 20 लाख बचाने के लालच में सुरक्षा मानकों की अनदेखी कर बस को ‘बर्निंग बस’ बना दिया जाता है।
जयपुर: सड़कों पर दौड़तीं चमचमाती लग्जरी और स्लीपर बसें बाहर से जितनी आरामदायक और सुरक्षित दिखती हैं, अंदर से वे उतनी ही खतरनाक हैं। हाल की बस दुर्घटनाएं, जिनमें यात्रियों को जिंदा जलते देखने के वीभत्स दृश्य सामने आए हैं, वे महज हादसा नहीं हैं। ये उस संगठित लापरवाही का नतीजा है, जिसकी जड़े बस की बनावट में ही छिपी हैं।
पत्रिका की इस इन्वेस्टिगेशन में खुलासा हुआ है कि यात्रियों की जान की कीमत पर मुनाफा कमाने का यह जानलेवा खेल बस की चेसिस खरीदने के बाद बॉडी बनाने वाले वर्कशॉप से ही शुरू हो जाता है। 15 से 20 लाख रुपये बचाने के लालच में सुरक्षा मानकों को ताक पर रखकर बस को ‘द बर्निंग बस' बनाने का पूरा इंतजाम कर दिया जाता है।
पत्रिका टीम ने जब बस बनाने वाली 3 मैन्युफैक्चरिंग कारखानों में विजिट किया और 5 बस मेकिंग में एक्सपर्ट मैकेनिकों से बात की तो चौंकाने वाली हकीकत सामने आई। यह पता चला कि कैसे आग लगने की स्थिति में यात्रियों को बचने या बाहर निकलने तक का मौका नहीं मिल पाता। आइए जानते हैं कि आप जिस बस में यात्रा करते हैं, कैसे उसके हर सेफ्टी फीचर के साथ मैन्युफैक्चरिंग के समय से ही समझौता किया जाने लगता है।
कानूनी तौर पर भारत में बसों की बॉडी और डिजाइन के लिए सख्त ऑटोमोटिव इंडस्ट्री स्टैंडर्ड एआईएस लागू हैं। इनमें एआईएस-052 (बस बॉडी कोड), एआईएस-119 (स्लीपर कोच डिजाइन) और अग्नि सुरक्षा के लिए एआईएस-135 और एआईएस-153 सबसे महत्वपूर्ण हैं।
लेकिन हकीकत यह है कि ज्यादातर बस ऑपरेटर निर्माता कंपनी से केवल चेसिस खरीदते हैं और फिर स्थानीय वर्कशॉप में अपनी मर्जी के मुताबिक बॉडी बनवाते हैं। यहीं से शुरू होता है लागत बचाने का खूनी खेल। मानकों को दरकिनार कर, सस्ती और घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है।
एसी स्लीपर बसों में आग सबसे तेजी से फैलती है। इसका मुख्य कारण बस के इंटीरियर में इस्तेमाल होने वाली सामग्री है।
नियम है कि बस के पर्दे, सीटों/बर्थ का फोम, गद्दे, रेक्सिन और प्लास्टिक पैनल 'फायर रिटार्डेंट' (एफआर) ग्रेड के होने चाहिए। मानक यह है कि यदि सामग्री में 15 सेकेंड के लिए लौ दिखाई जाए, तो उसकी "जलने की दर" 100 एमएम प्रति मिनट से कम होनी चाहिए। यानी उसे आग पकड़ने में समय लगना चाहिए।
पत्रिका की पड़ताल में सामने आया कि पैसे बचाने के लिए, अवैध बस बॉडी बिल्डर सस्ते, नॉन-एफआर फोम, साधारण पॉलिएस्टर के पर्दे और नॉन-एफआर प्लाईवुड का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं। केबिन और सीटों को आकर्षक बनाने के लिए पीवीसी और सिंथेटिक लेदर का जमकर उपयोग होता है।
बस एक्सपर्ट शानू जांगिड़ के मुताबिक, ये सामग्रियां पेट्रोल की तरह आग पकड़ती हैं और सेकंडों में खतरनाक धुआं पैदा कर देती हैं। यही कारण है कि ज्यादातर हादसों में यात्री जलने से पहले धुएं से बेहोश हो जाते हैं और उन्हें भागने का मौका ही नहीं मिलता।
आधुनिक बसों में एसी, दर्जनों चार्जिंग पॉइंट, म्यूजिक सिस्टम, फैंसी लाइटिंग और पंखों के लिए वायरिंग का जाल बिछा होता है। मुनाफे के लिए दूसरा बड़ा समझौता यहीं होता है।
मानक 100% तांबे (कॉपर) के फायर रिटार्डेंट तारों का है, जिनकी मोटाई एमएम हर उपकरण के लोड के हिसाब से तय होती है और सबके लिए अलग फ्यूज होना अनिवार्य है।
बस मैन्युफैक्चरिंग कारखाने में काम कर रहे एक मैकेनिक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, हम एसी और हेवी लोड के लिए 5 या 6 एमएम का तार इस्तेमाल करते हैं। लेकिन बस मालिक बाद में उसमें अलग से हैवी लाइटें और पंखे लगवाते हैं, जिससे लोड बढ़ जाता है। जबकि इतने लोड के लिए कम से कम 8 एमएम की तार होनी चाहिए।
पैसा बचाने के लिए पतले (कम एमएम) और सस्ते एल्यूमीनियम-मिश्रित तारों पर ओवरलोडिंग की जाती है। यह 'जुगाड़' शॉर्ट सर्किट को खुला न्योता देता है। कई बार अवैध रूप से लगाई गई एसी यूनिट या इन्वर्टर पर लोड बढ़ने से बैटरी फट जाती है, जिससे आग लग जाती है। जैसे ही तार गर्म होकर पिघलते हैं, पास में मौजूद ज्वलनशील फोम और प्लाईवुड आग के लिए 'ईंधन' का काम करते हैं।
आग लगने पर बचने का एकमात्र रास्ता आपातकालीन निकास होता है, लेकिन लालच उसे भी बंद कर देता है।
एक बस में 4 से 5 निकास (1 पिछला दरवाजा, 2 रूफ हैच, 1 ड्राइवर डोर) होने चाहिए, जो स्पष्ट बिना रुके और आसानी से खुलने वाले हों।
पड़ताल में सामने आया कि ज्यादातर स्लीपर बसों में 2 से 3 अतिरिक्त बर्थ लगाने के लिए पिछले आपातकालीन दरवाजे को वेल्डिंग करके स्थायी रूप से बंद कर दिया जाता है। इतना ही नहीं, बस के ढांचे पर सबसे बड़ा समझौता होता है।
बस का ढांचा मजबूत स्टील ट्यूब का होना चाहिए, जो "रोलओवर टेस्ट" (पलटने का टेस्ट) पास करे, ताकि पलटने पर छत इतनी न पिचक जाए कि यात्री दब जाएं।
स्थानीय वर्कशॉप में घटिया गेज की स्टील या लोहे के एंगल का इस्तेमाल होता है, जो मामूली टक्कर में ही पिचक जाता है और दरवाजे जाम हो जाते हैं। एसी और लंबी दूरी की बसों के लिए आग का पता लगाने वाले ऑटोमैटिक सिस्टम अनिवार्य हैं, लेकिन वे मिलते ही नहीं।
इंजन कंपार्टमेंट और पैसेंजर केबिन में ऑटोमैटिक फायर डिटेक्शन एंड सप्रेशन सिस्टम (एफडीएसएस) और अलार्म (एफडीएएस) होना अनिवार्य है। यह सिस्टम आग लगते ही अलार्म बजाता है और खुद ही आग बुझाने वाला केमिकल छोड़ देता है।
यह सिस्टम या तो बसों से गायब होता है। बस मैन्युफैक्चरर शानू जांगिड़ कहते हैं कि यह लगभग नहीं लगता है। सबसे खतरनाक बात यह है कि आरटीओ में फिटनेस सर्टिफिकेट देते समय इसकी गंभीरता से जांच ही नहीं की जाती।
चेसिस पर एंगल लगाकर 2 फीट ऊपर फर्श को उठा लेते हैं। डिग्गी अंडरग्रॉउंड की तरह बनाते हैं, जिससे एक बस में 2 मिनी ट्रक का सामान तक आ जाता है। यह चेसिस काटते हैं और उसकी साइज बढाकर 4 से 6 सीट बढ़ा लेते हैं। ओवर हैंग 60% से अधिक नहीं होनी चाहिए। मतलब आगे और पीछे वाले टायर के बीच के डिस्टेंस से 60% अधिक डिस्टेंस पीछे नहीं होने चाहिए।