समय के साथ धार्मिक परंपराएं भी आधुनिक रंग अपना रही हैं। श्राद्ध पक्ष, जिसे पितरों की स्मृति और आशीर्वाद के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है, अब डिजिटल युग के साथ कदमताल कर रहा है।
समय के साथ धार्मिक परंपराएं भी आधुनिक रंग अपना रही हैं। श्राद्ध पक्ष, जिसे पितरों की स्मृति और आशीर्वाद के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है, अब डिजिटल युग के साथ कदमताल कर रहा है। जैसलमेर भी इससे अछूता नहीं है। कई जगह परिवारजन पारंपरिक तर्पण और पिंडदान के साथ-साथ ऑनलाइन माध्यमों का भी सहारा ले रहे हैं।
ऑनलाइन तर्पण और डिजिटल पिंडदान
कई पंडित अब ऑनलाइन तर्पण और पिंडदान की सुविधा उपलब्ध करवा रहे हैं। विदेशों और बड़े शहरों में बसे परिवारजन वीडियो कॉल और लाइव स्ट्रीमिंग से इन कर्मकांडों में सहभागिता कर रहे हैं। इससे वे अपनी व्यस्त जिंदगी के बावजूद आस्था से जुड़े रह पाते हैं। पंडितों का कहना है कि डिजिटल सुविधा उन परिवारों के लिए वरदान है, जो दूरी के कारण श्राद्ध कर्म में प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं हो पाते।
दक्षिणा की परंपरा भी अब डिजिटल माध्यमों पर आधारित हो गई है। पहले जहां दक्षिणा नगद दी जाती थी, वहीं अब लोग यूपीआई, मोबाइल वॉलेट और बैंक ट्रांसफर से इसे पूरा कर रहे हैं। यह बदलाव परंपरा की गरिमा को बनाए रखते हुए आधुनिकता को अपनाने का प्रतीक बन गया है।
आज की पीढ़ी सोशल मीडिया के जरिए भी अपने पितरों को स्मरण कर रही है। फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप पर परिवारजन तस्वीरें, यादें और प्रेरणादायक प्रसंग साझा कर रहे हैं। इन पोस्टों ने श्राद्ध को केवल धार्मिक कर्मकांड तक सीमित नहीं रखा, बल्कि परिवार और समाज में भावनात्मक जुड़ाव को भी मजबूत किया है।
जैसलमेर के प्रवासी, जो अमेरिका, यूरोप और खाड़ी देशों में रहते हैं, डिजिटल साधनों से श्राद्ध परंपरा निभा रहे हैं। वे वीडियो कॉल पर मंत्रोच्चार सुनते हैं और अपने हिस्से का दान ऑनलाइन भेजते हैं। यह उनके लिए न केवल आस्था का प्रतीक है, बल्कि जड़ों से जुड़े रहने का माध्यम भी है।
धर्माचार्य जितेंद्र महाराज का कहना है कि परंपराओं में बदलाव समय की अनिवार्यता है। प्राचीन काल में भी समाज की परिस्थितियों के अनुसार कर्मकांडों का स्वरूप बदलता रहा। आज तकनीक के सहारे श्राद्ध का डिजिटल रूप आस्था की कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी जीवंतता और प्रासंगिकता का प्रमाण है।