वे इसे केवल झेलते ही नहीं, उसके साथ सामंजस्य बिठाकर जीते हैं।
तापमान 45-46 डिग्री के आसपास…हवा में अंगारे, ज़मीन पर तपती रेत और दोपहर में पसरा सन्नाटा। जैसलमेर का जून ऐसा ही होता है। लेकिन यहां के लोगों ने इस तपिश को जीवन का हिस्सा बना लिया है। वे इसे केवल झेलते ही नहीं, उसके साथ सामंजस्य बिठाकर जीते हैं। जून का महीना जैसलमेर की जीवनशैली को करीब से समझने का सबसे सही समय बन गया है। सुबह जल्दी और दोपहर में विराम - यही जैसलमेर की गर्मियों की मूल दिनचर्या है। सुबह 5 बजे ही लोग अपने जरूरी कामों में लग जाते हैं। दूध, सब्ज़ी, घर की सफाई और दफ्तर जाने का क्रम सूरज निकलने से पहले ही पूरा हो जाता है। इसके बाद दोपहर में गर्मी अपने चरम पर होती है। ऐसे में दुकानें, दफ्तर और गलियां अस्थायी विराम में चली जाती हैं।
घरों के अंदर अंधेरा रखा जाता है, खिड़कियों पर मोटे परदे टांगे जाते हैं और मटकों का ठंडा पानी जीवनदायिनी बन जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी तपती दोपहर में छाछ, बेल व जलजीरा पीने की परंपरा बनी हुई है। महिलाएं हल्के सूती परिधान पहनती हैं, पुरुष साफा बांधते हैं - ताकि शरीर को गर्म हवाओं से बचाया जा सके।
बच्चों की छुट्टियों के दौरान खेल भी घरों तक सिमट जाते हैं। छायादार कमरों में पारंपरिक खेल जैसे गोटा, सांप -सीढ़ी या दादी-नानी की कहानियों के साथ गर्मी के दिन कटते हैं। वहीं शाम के समय, जब हवा थोड़ी ठंडी होती है, तब लोग चौक में बैठते हैं और पारंपरिक गीतों के साथ दिन की थकान मिटाते हैं।
वरिष्ठ उद्यमी सुमेरसिंह राजपुरोहित का कहना है कि जून की गर्मी के मौसम में भी सेना, बिजली विभाग, पानी सप्लाई और पर्यटन क्षेत्र के लोग अपनी ड्यूटी निभा रहे होते हैं। फौजी रेगिस्तान की चौकियों पर तैनात हैं, ऊंट सफारी चलाने वाले चंद आने वाले सैलानियों को रेत की लहरों में घुमा रहे हैं। जून की गर्मी जैसलमेर के लोगों की दिनचर्या को चुनौती देती है, लेकिन यह चुनौती उन्हें और भी ज़्यादा अनुशासित, सहज और सामथ्र्यवान बना देती है।