वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह ने कहा- 28 साल बक्से में बंद फाइल न कांग्रेस की सरकारों ने और न ही बीजेपी की सरकारों ने इसे खोलने की हिम्मत दिखाई।
बोफोर्स तोप घोटाला, भारतीय राजनीति के सबसे काले अध्यायों में से एक, आज भी अनसुलझा बना हुआ है। यह बात 1987 में तब उजागर हुई थी, जब स्वीडिश रेडियो ने दावा किया कि स्वीडन की कंपनी बोफोर्स ने भारत को 155 मिमी हॉवित्जर तोपें बेचने के लिए भारतीय नेताओं और अधिकारियों को 64 करोड़ रुपये की रिश्वत दी थी। इस घोटाले को उजागर करने वाली पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यम ने अपनी किताब बोफोर्सगेट में सनसनीखेज खुलासा किया है कि 1997 से ही स्विट्जरलैंड से प्राप्त दस्तावेज—जिनमें रिश्वत के प्राप्तकर्ताओं के नाम, कमीशन का प्रतिशत, बैंक खातों के निर्देश और अन्य अहम सबूत शामिल थे, सीबीआई के पास मौजूद हैं। लेकिन 28 साल बाद भी ये दस्तावेज बक्सों में बंद पड़े हैं, और कोई ठोस जांच आगे नहीं बढ़ी। आखिर क्यों?
वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह अपने एक लेख में इस घोटाले को दिल्ली की राजनीति के "ब्लैक अंडरवर्ल्ड" की कहानी बताती हैं, जहां भ्रष्ट नेता, अपराधी और उनके साथी अफसर फलते-फूलते हैं। उनका कहना है कि इस घोटाले के केंद्र में इतालवी दलाल ओत्तावियो क्वात्रोची का नाम बार-बार आता है, जो राजीव गांधी और सोनिया गांधी का करीबी दोस्त था। तवलीन लिखती हैं कि इंदिरा गांधी के शासनकाल से ही क्वात्रोची का जलवा था—उसके पास स्नैमप्रोजेट्टी के लिए ठेके हासिल करने की असाधारण क्षमता थी। राजीव के प्रधानमंत्री बनते ही उसकी पहुंच और बढ़ गई। जुलाई 1999 में यह साफ हो गया कि बोफोर्स की रिश्वत दो गुप्त बैंक खातों में गई थी, जो क्वात्रोची और उनकी पत्नी मारिया के थे। इसके बाद वह भारत से फरार हो गया और कभी वापस नहीं लौटा।
चित्रा सुब्रमण्यम का दावा है कि सीबीआई के पास वे सारे दस्तावेज हैं जो इस मामले को सुलझा सकते हैं। फिर भी, न कांग्रेस की सरकारों ने और न ही बीजेपी की सरकारों ने इसे खोलने की हिम्मत दिखाई। तवलीन सिंह बताती हैं कि मनमोहन सिंह ने 2009 के चुनाव से पहले क्वात्रोची के फ्रीज बैंक खाते को लंदन में चालू करवाया था। वहीं, अटल बिहारी वाजपेयी के समय में भी वादे तो हुए, लेकिन कार्रवाई नहीं हुई। नरेंद्र मोदी, जो भ्रष्टाचार खत्म करने के वादे के साथ सत्ता में आए, उनकी सरकार ने भी इस मामले में कोई रुचि नहीं दिखाई। चित्रा के शब्दों में, "1997 से सीबीआई के पास सबूत हैं, लेकिन वे बक्सों में बंद हैं।" सवाल उठता है—क्या यह इसलिए है कि राजनेताओं और अधिकारियों के बीच भ्रष्टाचार को लेकर एक गुप्त सहमति है?
तवलीन सिंह का अनुमान है कि शायद मोदी सरकार भी अपने सहयोगियों या क्षेत्रीय नेताओं के भ्रष्टाचार को नजरअंदाज कर रही है, जिसके चलते बोफोर्स जैसे बड़े मामले दबा दिए जाते हैं। 28 साल से बक्सों में बंद ये दस्तावेज भारतीय लोकतंत्र पर एक सवालिया निशान हैं—क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई सिर्फ दिखावा है? या फिर सत्ता में आने वाला हर दल इस "ब्लैक अंडरवर्ल्ड" का हिस्सा बन जाता है? बोफोर्स घोटाला आज भी जवाब मांगता है, लेकिन जवाब देने की इच्छाशक्ति किसी में नहीं दिखती।