भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की 3 दिसंबर को जयंती है। इस अवसर पर देश उनका स्मरण करेगा। पर यहां बात हो रही है उनकी पत्नी राजवंशी देवी जी की। सहज, सरल, धैर्यवान और अत्यंत त्यागमयी व्यक्तित्व था उनका। उन्होंने राष्ट्रपति भवन में भी कई परंपराओं को शुरू किया। उन्हें सब राष्ट्रपति भवन में मां जी कहते थे। डॉ राजेंद्र ने भी अपनी आत्म कथा में उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद को देश के राष्ट्रपति के कार्यकाल (1950-1962) के दौरान उनकी पत्नी राजवंशी देवी ने राष्ट्रपति भवन में कई खास त्योहारों को मनाने की परंपरा शुरू की। सहज, सरल, धैर्यवान और अत्यंत त्यागमयी – यही राजवंशी देवी का व्यक्तित्व था। राजवंशी देवी दिवाली, होली, रक्षाबंधन और ईद पर आगंतुकों और स्टाफ के साथ वक्त बिताती। डॉ. राजेंद्र प्रसाद तो कुछ देर के बाद वहां से निकल जाया करते थे, पर राजवंशी देवी वहीं रहती। राष्ट्रपति भवन में सभी उन्हें 'मां जी' कहते थे।
राजवंशी देवी उस दौर की उन अनगिनत भारतीय महिलाओं की प्रतीक हैं, जिन्होंने बिना कोई नाम या पुरस्कार लिए अपने पति के बड़े सपनों को साकार करने में अपना पूरा जीवन न्योछावर कर दिया। वे कभी अखबारों की सुर्खियां नहीं बनीं, न कोई भाषण दिया, पर डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे महान व्यक्ति के पीछे उनकी त्यागमयी छवि ही भारत के प्रथम राष्ट्रपति-दंपति की गरिमा को और ऊंचा करती है। आज जब हम भारत के प्रथम राष्ट्रपति को याद करते हैं, तो उनके साथ राजवंशी देवी का मौन लेकिन अटूट सहयोग भी स्वतः ही याद आता है।
राजवंशी देवी राष्ट्रपति भवन के अंदर चलने वाले स्कूल में होने वाले कार्यक्रमों में भाग लेते हुए मेधावी बच्चों को पुरस्कृत भी करती थीं। अब इसका स्कूल का नाम राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय विद्लाय है। हर वर्ष 1 फरवरी को राष्ट्रपति भवन दिवस मनाया जाता है। राजवंशी देवी इस दिन पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में राष्ट्पति भवन के स्टाफ और उनके परिवारजनों के साथ रहा करती थीं।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण करने के बाद 1 फरवरी, 1950 को राष्ट्रपति भवन में सपरिवार रहना शुरू कर दिया था। 26 जनवरी, 1950 से इसे राष्ट्रपति भवन कहा ही जाने लगा। इसी उपलक्ष्य में यहां हर वर्ष 1 फरवरी को राष्ट्रपति भवन दिवस मनाया जाता है। इस दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रम और राष्ट्रपति भवन के स्टाफ और उनके परिवारजनों के बीच खेल कूद प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं। इनके विजेताओं को राष्ट्रपति पुरस्कृत करते हैं। राजवंशी देवी ने कभी राष्ट्रपति भवन के स्टाफ को यह महसूस नहीं होने दिया था कि वे देश के राष्ट्रपति की पत्नी हैं।
राजवंशी देवी ने अपने पति के स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्र-सेवा के लंबे संघर्ष में एक अटूट सहारा प्रदान किया। राजवंशी देवी का जन्म बिहार के सारण जिले (वर्तमान सीवान) के निकट जिरादेई गांव के पास एक छोटे से गांव तेनुअर (या टेनुआ) में एक समृद्ध कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री सुखदेव सहाय एक जमींदार और सम्मानित व्यक्ति थे। उस समय की परंपरा के अनुसार बाल-विवाह प्रचलित था। मात्र 13 वर्ष की आयु में सन् 1901 (या कुछ स्रोतों के अनुसार 1896-97 में, जब वे 8-9 वर्ष की थीं) में उनका विवाह 12-13 वर्षीय राजेंद्र प्रसाद से हो गया।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद जब 1917 में गांधीजी से मिले और स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े, तब से उनका जीवन पूरी तरह देश को समर्पित हो गया। घर की सारी जिम्मेदारी राजवंशी देवी पर आ गई। राजेंद्र प्रसाद बार-बार जेल जाते थे – 1920 के असहयोग आंदोलन, 1930-31 के नमक सत्याग्रह, 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में लंबी-लंबी जेल यात्राएं। इस दौरान परिवार को आर्थिक तंगी भी झेलनी पड़ी, क्योंकि राजेंद्र प्रसाद ने अपनी वकालत छोड़ दी थी और गांधीजी के आह्वान पर सब कुछ त्याग दिया था।
राजवंशी देवी ने कभी इसका विरोध नहीं किया। वे चुपचाप बच्चों की परवरिश करतीं, घर चलातीं और पति की अनुपस्थिति में ससुराल के बड़े-बूढ़ों की सेवा करतीं। उनके एकमात्र पुत्र मृत्युंजय प्रसाद (जन्म 1920) थे, जो बाद में बिहार के राजनीतिक जीवन में सक्रिय रहे। उनकी कोई पुत्री नहीं थी।
राजवंशी देवी का राजधानी दिल्ली में आयोजित छठ महापर्व के पहले आयोजन को आशीर्वाद मिला। पहला छठ का आयोजन 1956 केन्द्र सरकार के कर्मियों की कॉलोनी सरोजनी नगर के निवासी श्रीकांत दुबे की पहल पर आयोजित हो रहा था। वे तब राजधानी के कुछ भोजपुरी समाज के सदस्यों के साथ राष्ट्रपति भवन में साइकिल पर सवार होकर पहुंचे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद को छठ उत्सव में शामिल होने का निमंत्रण दिया। उस जमाने में आज की तरह की सुरक्षा व्यवस्था कहीं भी नहीं होती थी। हालांकि, विभिन्न कारणों से वे शामिल नहीं हो सके, लेकिन उनकी पत्नी राजवंशी देवी ने सरोजिनी नगर में आयोजित छठ महापर्व में शिरकत की। अगले कुछ वर्षों तक वे इस आयोजन में शामिल होती रहीं और सभी के साथ आत्मीयता से मिलती-जुलती। राजवंशी देवी कुछ समय अपने सरोजिनी नगर में रहने वाले रिश्तेदार विश्वेश्वर नारायण के फ्लैट पर भी आया करती थीं। राजवंशी देवी सरलता और सादगी की मिसाल थीं।
राजवंशी देवी कभी-कभी खुद अपनी पौत्रियों को कनॉट प्लेस के ऱघुमल कन्या विद्यालय में सुबह छोड़ने जाती थीं। इसी स्कूल में जनसंघ की 1951 में स्थापना हुई थी। डॉ. राजेंद्र प्रसाद की पहल पर ही राष्ट्रपति भवन परिसर के भीतर एक मंदिर और एक मस्जिद दोनों का निर्माण किया गया था। कुछ जानकार कहते हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी राजवंशी देवी की सलाह पर इस तरह का कदम उठाया था। चूंकि राष्ट्रपति भवन के ठीक बाहर चर्च और गुरुद्वारा पहले से ही मौजूद हैं, इसलिए शायद उन्हें बनाने की कोई आवश्यकता नहीं महसूस की गई हो।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद लिखते हैं कि उनका विवाह बहुत कम उम्र में (लगभग 13 वर्ष की आयु में, सन् 1897 में) हो गया था।“मेरा विवाह बहुत छोटी अवस्था में हो गया था। मेरी पत्नी का नाम राजवंशी देवी था। वे मेरी माँ के समान थीं।”
स्वाधीनता आंदोलन में जेल जाने पर उन्होंने अपनी पत्नी के धैर्य और त्याग की प्रशंसा की है।“जब मैं जेल जाता था, घर की सारी जिम्मेदारी मेरी पत्नी पर होती थी। वे कभी शिकायत नहीं करती थीं। बच्चों को पढ़ाना-लिखाना, घर चलाना, गाँव की देखभाल – सब कुछ वे अकेले संभालती थीं। मैं जब बाहर निकलता तो देखता कि सब कुछ व्यवस्थित है। उनके त्याग और सहनशीलता का मैं सदैव ऋणी रहूंगा।”
राजवंशी देवी का देहांत 9 सितंबर 1962 को हुआ। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा:“मेरी जीवन-संगिनी मेरे से पहले चली गई। सारा जीवन उन्होंने मेरे लिए समर्पित कर दिया। मैं अकेला रह गया।”