26/11 मुंबई हमलों के बाद केंद्रीय गृह मंत्री पद से इस्तीफा देने वाले और लोकसभा अध्यक्ष के रूप में संसदीय प्रक्रियाओं के आधुनिकीकरण के लिए जाने जाने वाले एक बेहद सुसंस्कृत नेता शिवराज सिंह पाटिल का निधन हो गया है।
शिवराज सिंह पाटिल के निधन से देश ने एक बेहद सुसंस्कृत नेता को खो दिया है। उन्हें 26/11 मुंबई हमलों के बाद केन्द्रीय गृह मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था। दरअसल 26 नवंबर 2008 को मुंबई में हुए इन क्रूर आतंकवादी हमलों ने भारत को हिलाकर रख दिया था। इन हमलों में लगभग 166 निर्दोष नागरिकों की जान चली गई, जबकि सैकड़ों घायल हुए। हमलों के बाद गृह मंत्री शिवराज पाटिल को अपना पद छोड़ना पड़ा, जो नैतिक जिम्मेदारी लेने का एक प्रतीकात्मक कदम था। यह इस्तीफा सुरक्षा व्यवस्था की विफलताओं, खुफिया तंत्र की लापरवाही और राजनीतिक दबाव का परिणाम था। पाटिल का इस्तीफा न केवल व्यक्तिगत था, बल्कि यूपीए सरकार की छवि पर भी लगा एक दाग था, खासकर 2009 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले।
हमलों के समाप्त होने के तुरंत बाद, 29 नवंबर की देर रात सीडब्ल्यूसी बैठक में पाटिल ने इस्तीफा सौंपा। 30 नवंबर को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे स्वीकार कर लिया, और राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने औपचारिक रूप से मंजूरी दी। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन ने भी इस्तीफा ऑफर किया, लेकिन वह स्वीकार नहीं हुआ। यह घटना-क्रम दर्शाता है कि सरकार ने त्वरित कार्रवाई की कोशिश की। उनके कार्यकाल में 2008 में ही कई बड़े हमले हुए, जैसे जुलाई में दिल्ली बम धमाके (23 मृत्यु), मई में जयपुर सीरियल ब्लास्ट (63 मृत्यु), जुलाई में अहमदाबाद ब्लास्ट (56 मृत्यु) और सितंबर में दिल्ली में और विस्फोट। इन घटनाओं ने उनकी क्षमता पर संदेह पैदा किया।
शिवराज पाटिल का इस्तीफा मुख्य रूप से तीन कारणों से हुआ: सुरक्षा व्यवस्था की विफलता, राजनीतिक दबाव और व्यक्तिगत आलोचना। सबसे प्रमुख था सुरक्षा लापरवाही। हमलों से पहले भारतीय और विदेशी खुफिया एजेंसियों ने कई चेतावनियां जारी की थीं। उदाहरणस्वरूप, अमेरिकी दूतावास ने 18 नवंबर को मुंबई में संभावित हमले की चेतावनी दी थी, जबकि रॉ और आईबी ने भी तटीय घुसपैठ की आशंका जताई थी। लेकिन गृह मंत्रालय ने इन इनपुट्स को गंभीरता से नहीं लिया। तटीय सुरक्षा कमजोर थी; मुंबई जैसे व्यस्त बंदरगाह पर निगरानी की कमी ने आतंकवादियों को आसानी से प्रवेश करने दिया। 2008 में 64 बम धमाकों में 215 से अधिक मौतें हुईं, जो मंत्रालय की निष्क्रियता को दर्शाता हैं। पाटिल को उच्च स्तरीय सुरक्षा बैठकों से भी बाहर रखा गया था, जो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के असंतोष को दिखाता है।
हिन्दुस्तान टाइम्स के वरिष्ठ संपादक रहे अरुण कुमार कहते हैं कि उनका इस्तीफे के पीछे राजनीतिक दबाव भी वजह थी। विपक्षी दल बीजेपी ने पाटिल को 'सुरक्षा विफलता का प्रतीक' करार दिया और संसद में हंगामा किया। मीडिया ने भी कड़ी आलोचना की, जैसे 'गृह मंत्रालय सो रहा था' शीर्षक वाली सुर्खियां। जनता का गुस्सा सड़कों पर उतर आया; मुंबई में विरोध प्रदर्शन हुए जहां लोग 'पाटिल हटाओ' के नारे लगा रहे थे। कांग्रेस पार्टी के अंदर भी दबाव था, क्योंकि 2009 चुनाव नजदीक थे। पार्टी को डर था कि यह मुद्दा वोट बैंक को प्रभावित करेगा। कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक में पाटिल ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा ऑफर किया। पाटिल के इस्तीफे के बाद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को गृह मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार दिया गया। इस घटना ने भारत में आंतरिक सुरक्षा सुधारों को गति दी, जैसे तटीय सुरक्षा बढ़ाना और खुफिया तंत्र मजबूत करना।
दिल्ली बम धमाके के बाद अखबारों में उनकी तीन अलग-अलग पोशाकों की तस्वीरें छपीं, जो जनता के गुस्से को भड़काया। एक रिपोर्ट में कहा गया कि वे व्यापारिक यात्रा पर पांच कंघे साथ ले जाते थे। ये छोटी-छोटी बातें उनके गंभीर मुद्दों पर फोकस न करने की छवि बनाती रहीं। कुल मिलाकर, ये कारण मिलकर इस्तीफे का आधार बने, जो एक डैमेज कंट्रोल मूव था।
इस बीच,शिवराज पाटिल 10 जुलाई 1991 से 22 मई 1996 तक लोकसभा के 10वें स्पीकर रहे। यह अवधि भारत के आर्थिक सुधारों के दौर की थी, जब पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने उदारीकरण की नीतियां अपनाईं। पाटिल का कार्यकाल संसदीय प्रक्रियाओं को आधुनिक बनाने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए जाना जाता है, हालांकि इसमें कुछ चुनौतियां भी रहीं।
वरिष्ठ पत्रकार शिश झा कहते हैं कि पाटिल ने लोकसभा को अधिक कुशल और जन-उन्मुख बनाने पर जोर दिया। उस समय लोकसभा में तीखी बहसें और राजनीतिक अस्थिरता का माहौल था, लेकिन पाटिल ने संतुलित दृष्टिकोण अपनाकर सदन की कार्यवाही को सुचारू रखा। उन्होंने 1991 से 1995 तक विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संसदीय सम्मेलनों में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया, जिससे भारत की संसदीय छवि मजबूत हुई। उनके कार्यकाल में प्रमुख पहलें संसद के आधुनिकीकरण से जुड़ी रहीं। उदाहरण के लिए, उन्होंने संसद सदस्यों को जानकारी के वितरण के लिए कंप्यूटरीकरण की शुरुआत की, जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था। इससे पहले, सूचनाएं मैनुअल रूप से वितरित होती थीं, लेकिन पाटिल की पहल से डिजिटल माध्यमों का उपयोग बढ़ा।
इसके अलावा, उन्होंने संसद पुस्तकालय भवन के निर्माण का कार्यकिया, जो संसद सदस्यों के लिए एक आधुनिक संसाधन केंद्र बना। यह भवन आज भी संसदीय शोध का महत्वपूर्ण हिस्सा है। पाटिल को एक इनोवेटिव लीडर के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने गहन अंतर्दृष्टि के साथ सुधार किए। उन्होंने 17 विभागीय समितियों का घटन किया, जो विभिन्न मंत्रालयों की निगरानी के लिए गठित की गईं। इन समितियों ने संसदीय निगरानी को मजबूत किया और सरकारी जवाबदेही बढ़ाई। एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान था लोकसभा कार्यवाही का लाइव प्रसारण।
पाटिल ने दोनों सदनों में प्रश्न काल का सीधा प्रसारण शुरू कराया, जिससे जनता संसद की कार्यवाही से सीधे जुड़ सकी। इससे पहले, संसद की बहसें आम लोगों से दूर रहती थीं, लेकिन इस कदम ने लोकतंत्र को अधिक पारदर्शी बनाया। उन्होंने संसदीय प्रक्रिया और प्रक्रियाओं पर छह वीडियो भी निर्देशित किए, जो जनता को संसद के कार्यों से परिचित कराने के उद्देश्य से बनाए गए। ये वीडियो आज भी शैक्षिक संसाधन के रूप में उपयोगी हैं।
1992 में पाटिल ने 'उत्कृष्ट संसद सदस्य पुरस्कार' की स्थापना की, जो संसदीय योगदान को सम्मानित करने का पहला ऐसा पुरस्कार था। यह पुरस्कार आज भी जारी है और संसद सदस्यों को प्रेरित करता है। उनके कार्यकाल में संविधान की 10वीं अनुसूची (दलबदल विरोधी कानून) की कमियों को उजागर किया गया और सुधार के सुझाव दिए गए, जिसने बाद के संसदीय सुधारों को प्रभावित किया। हालांकि, कोई बड़े विवाद उनके नाम से जुड़े नहीं हैं, लेकिन उस दौर की राजनीतिक उथल-पुथल में स्पीकर के रूप में निष्पक्षता बनाए रखना चुनौतीपूर्ण रहा। पाटिल की शैली शांत और संतुलित थी, जो सदन की गरिमा को बनाए रखने में सहायक सिद्ध हुई।
कुल मिलाकर, शिवराज पाटिल का स्पीकर कार्यकाल संसद को आधुनिक और जन-केंद्रित बनाने में सफल रहा। उनके सुधारों ने भारतीय लोकतंत्र की नींव को मजबूत किया, विशेषकर डिजिटलीकरण और प्रसारण के क्षेत्र में। बाद में वे गृह मंत्री बने, लेकिन स्पीकर के रूप में उनका योगदान स्थायी है। यह कार्यकाल दर्शाता है कि कैसे एक नेता की दूरदृष्टि संसदीय प्रणाली को बदल सकती है।