विनय कौड़ा, अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
अमरीका के उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस ने हाल ही मिसिसिपी यूनिवर्सिटी में टर्निंग पॉइंट यूएसए रैली में कहा कि वे आशा करते हैं कि उनकी हिंदू पत्नी उषा ‘भी उस अनुभव से प्रभावित होंगी, जिससे मैं गिरजाघर में प्रभावित हुआ था।’ रैली में हजारों समर्थकों के सामने वेंस ने यह बयान देते हुए यह संदेश दिया कि उनकी आस्था और अनुभव दूसरों के लिए भी मार्गदर्शक हो सकते हैं, जिससे यह निजी विश्वास से ही बढ़कर सार्वजनिक संदेश बन गया। इस घटना ने बहुसांस्कृतिक अमरीका में धर्म और पहचान के मुद्दों पर बहस को नया मोड़ दिया है। आलोचकों ने इसे अमरीका में ईसाई राष्ट्रवाद के बढ़ते प्रभाव और धार्मिक बहुलता पर संभावित दबाव के रूप में देखा है।
दरअसल, उपराष्ट्रपति का यह कथन केवल व्यक्तिगत आस्था का प्रदर्शन या एक पति की आकांक्षा नहीं है, बल्कि उस राजनीतिक वातावरण का प्रतीक है जिसमें धर्म और सार्वजनिक नैतिकता गहरे रूप से जुड़े हुए हैं। धर्म, किसी भी रूप में, व्यक्तिगत अनुभव और आत्मिक खोज का विषय होता है।
हर आस्थावान यह चाहता है कि उसकी आस्था, जिसने उसे जीवन को नई दिशा और अर्थ दिया, दूसरों को भी आकर्षित करे। इसमें कोई दोष नहीं है। परंतु जब यही भाव सत्ता के शीर्ष पर बैठे किसी व्यक्ति के मुख से निकलता है और वह राजनीतिक मंच पर ‘संदेश’ बनकर समाज तक पहुंचता है, तब इसका प्रभाव निजी नहीं रह जाता। यह सार्वजनिक नैतिकता और सांस्कृतिक पहचान के गंभीर सवालों को जन्म देता है। अमरीका, जो स्वयं को बहुसांस्कृतिक और बहुधर्मी राष्ट्र मानता है, वहां इस प्रकार के वक्तव्य उस अंतर्विरोध को उजागर करते हैं कि क्या ईसाई धर्म ही अब भी अमरीकी नैतिकता, राष्ट्रभक्ति और पारिवारिक मूल्यों का मानक है? क्या अन्य आस्थाएं- हिंदू, यहूदी, सिख, बौद्ध, मुस्लिम या मानवतावादी- केवल सहनशील हैं, सम्मानित नहीं?
भारत हजारों वर्षों से यह सिखाता आया है कि विविध आस्थाएं केवल साथ नहीं रहतीं, बल्कि एक-दूसरे में प्रवाहित हो कर समाज को गहन बनाती हैं। डॉनल्ड ट्रंप की अमरीकी समस्या यह नहीं है कि वह धार्मिक हो रहे हैं, बल्कि यह है कि धर्म को राष्ट्रीय पहचान के साथ जोड़ने की प्रवृत्ति अन्य विश्वासों के लिए जगह संकुचित कर रही है। उपराष्ट्रपति वेंस के शब्दों में यही भाव झलकता है कि किसी एक खास मत में ‘आना’ ही संपूर्णता है। सच्चा लोकतंत्र ‘एरूपता’ नहीं चाहता। वह विविधता की लय में विश्वास करता है। आज अमरीका जिस संकट से गुजर रहा है, वह केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक भी है। ईसाई राष्ट्रवाद के नाम पर अमरीका में सार्वजनिक जीवन को नए सिरे से गढ़ा जा रहा है। उदाहरण के लिए, कई राज्यों में सरकारी स्कूलों में अनिवार्य ईसाई प्रार्थनाएं लागू करने की कोशिशें हो रही हैं। ‘बाइबिलीय मूल्यों’ को कानूनों में शामिल करने के प्रयास जारी हैं। विविधता और बहुलता को प्रोत्साहित करने वाले कार्यक्रमों को मज़ोर किया जा रहा है। इन सब प्रयासों का अप्रत्यक्ष संदेश स्पष्ट है- अमरीकी होने के लिए ईसाई होना आवश्यक है। वेंस का वक्तव्य उसी मानसिकता की प्रतिध्वनि है।
परंतु यह अमरीकी पहचान का संपूर्ण संस्करण नहीं है और न कभी रहा है। अमरीका की शक्ति उन अनगिनत लोगों से आती है जिन्होंने अपने धर्म और संस्कृति को अमरीका की मिट्टी में नए अर्थों के साथ बोया। यहूदी, हिंदू, सिख, बौद्ध, मुस्लिम और मानवतावादी सभी ने अमरीकी लोकतंत्र को समृद्ध किया।
प्रश्न यह नहीं है कि कौन-सा धर्म ‘सच्चा’ है, बल्कि यह है कि कौन सा समाज इतना साहसी है कि वह अनेक सत्यों के साथ जी सके। अमरीका की सुंदरता तब अक्षुण्ण रहेगी, जब वहां सभी धर्मावलंबियों के लिए विश्वास, सम्मान और स्वतंत्रता जीवित रहे। यह बहुलता ही अमरीकी लोकतंत्र को उसकी असली पहचान देती है और यही उसे एक शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्र बनाती है। धर्म, आस्था और लोकतंत्र का संगम केवल तभी जीवित रह सकता है जब वह संवाद और सम्मान के आधार पर गढ़ा जाए। अमरीका की असली ताकत यह होगी कि वह विविधता को अपनाए, न कि उसे दबाए।