डॉ. रहीस सिंह, अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
इस समय बीजिंग-इस्लामाबाद बॉण्डिंग में कुछ और आयाम जुड़ते हुए दिख रहे हैं, जिनके सिरे एक तरफ काबुल और दूसरी तरफ ढाका तक पहुंच रहे हैं। यह बीजिंग के सामरिक और आर्थिक ‘गेम प्लान’ का हिस्सा है अथवा कुछ और, अभी कहना जल्दबाजी होगी लेकिन उससे बेहतर की उम्मीद भी तो नहीं की जा सकती। यह भी संभव है कि बीजिंग-इस्लामाबाद-ढाका त्रिकोण क्षेत्रीय शक्ति संतुलन में भारत की भूमिका को प्रभावित करे। इस्लामाबाद तो बीजिंग को अपना ऑल वेदर फ्रेंड कहता ही रहा है। इसके बदले में चीन ने उसको भरपूर वित्त पोषण किया तथा इंफ्रा व रक्षा सहयोग किया है लेकिन ढाका की इस दिशा में बढ़ती निकटता कुछ और कह रही है। सच तो यह है कि ढाका इस समय बीजिंग और इस्लामाबाद से एक रणनीतिक ‘हेजिंग’ करता हुआ देखा जा सकता है जिसके अपने मायने हैं।
यदि चीनी गतिविधियां पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल और मालदीव में तेज हो रही हैं तो उन्हें केवल एक बंदरगाह अथवा आर्थिक गलियारे तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता, बल्कि वे एक व्यापक रणनीति का हिस्सा भी हो सकती हैं जो न केवल दक्षिण एशिया बल्कि इंडो-पैसिफिक को प्रभावित कर सकती हैं। पूरे हिंद महासागर में चीन एक आक्रामक रणनीति, कैलकुलेटेड इकोनॉमिक्स और सधी हुई जियो-पॉलिटिक्स के साथ आगे बढ़ रहा है जिसकी शुरुआत बहुत पहले हो चुकी है। ध्यान रहे कि चीन ‘सीपेक’ (चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर) से पहले ही ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ की नींव डाल चुका था जो एक तरफ ग्वादर (पाकिस्तान) से लेकर मारओ (मालदीव), हम्बनटोटा (श्रीलंका) होते हुए सिंहनाक्विलै (कम्बोडिया) तक और दूसरी तरफ मलक्का से जिबूती तक रणनीतिक समुद्री केन्द्रों की एक सामरिक शृंखला निर्मित कर रहा, जो हिंद महासागर में उसके लिए पावर बैलेंसिंग का काम कर सकती है। सीपेक को ही लें तो इसके माध्यम से चीन ग्वादर बंदरगाह को मुख्य स्ट्रैटेजिक नोड के रूप में विकसित कर रहा है, जिससे उसकी पहुंच मध्य पूर्व की ओर के समुद्री मार्गों तक होगी, फलत: मलक्का जलडमरूमध्य (स्ट्रेट ऑफ मलक्का) पर निर्भरता कम होगी। अब चीन इसे पाकिस्तान से आगे अफगानिस्तान तक विस्तार देना चाहता है ताकि व्यापार और सम्पर्क मार्ग को मध्य एशिया तक बढ़ाया जा सके।
अगर ऐसा होता है तो अफगानिस्तान से मध्य एशिया तक का समस्त क्षेत्र चीन के रणनीतिक प्रभाव क्षेत्र में परिवर्तित हो जाएगा। इससे उसे न केवल आर्थिक लाभांश हासिल होंगे, बल्कि कूटनीतिक और रणनीतिक लाभांश भी हासिल होंगे। इसका इस्तेमाल वह दक्षिण एशिया में पावर बैलेंसिंग के लिए कर सकता है। भारत को इसे गंभीरता से लेना होगा। बीजिंग, इस्लामाबाद और ढाका के बीच हालिया त्रिपक्षीय संवाद और समझौता एक संभावित ‘रणनीतिक त्रिकोण’ का संकेत देता है। हालांकि बांग्लादेश सरकार अभी किसी भी ‘सैन्य गठबंधन’ अथवा ‘ब्लॉक आधारित व्यवस्था’ में शामिल होने से इनकार कर रही है। वह चीन से तकनीकी और आर्थिक मदद तो चाहता है, जो उसकी ‘अनुबंधात्मक’ और ‘संतुलित’ विदेश नीति का हिस्सा है। लेकिन क्या ऐसा ही है?
ध्यान रहे कि पिछले दिनों बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मुहम्मद यूनुस चीन यात्रा पर गए थे। उनकी इस यात्रा के बाद से ही चीन की ओर से ‘चिकन नेक’ (सिलिगुड़ी कॉरिडोर) के करीब बांग्लादेश के लालमोनिरहाट जिले में एक एयरफील्ड बनाने की योजना की चर्चा चल पड़ी है। बात यहीं तक सीमित नहीं है। बांग्लादेश की वायुसेना के कुछ अधिकारियों की पाकिस्तान में जेएफ-17 विमानों के प्रशिक्षण संबंधी खबरें भी आ रही हैं। ये विमान चीन और पाकिस्तान ने संयुक्त रूप से विकसित किए हैं। जानकारों की मानें तो इन फाइटर विमानों को लालमोनिरहाट में तैनात किया जाना है। देखना यह है कि चीन ‘सीपेक 2.0’ के जरिए पाकिस्तान के किस-किस क्षेत्र तक विस्तार करता है। यह विस्तार खनन, कृषि और ऊर्जा क्षेत्र में निवेश तक सीमित रहेगा अथवा उसकी संपूर्ण सप्लाई चेन पर कब्जे तक जाएगा? चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने इस्लामाबाद यात्रा और काबुल में उनके पाकिस्तानी व अफगान समकक्षों के साथ हुई त्रिपक्षीय बैठक की, जिसमें तीनों देशों ने सीपेक को काबुल तक विस्तार देने पर सहमति जताई। ध्यान रहे कि ‘आसियान प्लस थ्री’ विदेश मंत्रियों की बैठक में चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने पहले ही कह दिया था कि बीजिंग, पाकिस्तान की राष्ट्रीय स्वतंत्रता, संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करने तथा आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में उसका समर्थन जारी रखेगा। उनके इन शब्दों के कुछ मायने हैं, जो चीनी विदेश नीति के आयामों में गहरे छिपे हुए हैं। नई दिल्ली इनसे भलीभांति परिचित है और समय-समय पर विरोध भी दर्ज कराती है।
चीन लंबे समय से भारत के साथ ‘लव-हेट गेम’ खेल रहा है। गौर से देखें तो पाकिस्तान में असल सत्ताधारी जनरल मुनीर हैं, जिनका लोकतंत्र से कोई नाता नहीं है। बांग्लादेश में भी चुनी हुई लोकप्रिय सरकार नहीं है, बल्कि वह जनता की चुनी हुई सरकार को अपदस्थ करके सत्ता पर काबिज हुई है। वहां एक्टिव सरकार के मुख्य सलाहकार दिखते हैं उनके पीछे असल पावर कौन है, यह अदृश्य है। अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता में हैं जो सरकार को पदच्युत और लोकतंत्र को पैरों तले रौंदकर सत्ता में आए हैं। ये चीजें बीजिंग के अनुकूल हैं। चीनी गतिविधियां संदिग्ध हैं, भारत को इस पर नजर ही नहीं रखनी होगी, बल्कि काउंटर रणनीति भी तैयार करनी होगी।