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दवाओं को लेकर नीति, जागरूकता व जिम्मेदारी की दरकार

डॉ. विवेक एस. अग्रवाल, (लेखक चिकित्सा एवं पर्यावरण विषयों के जानकार हैं)

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Oct 28, 2025

इन दिनों दवाओं को लेकर काफी चर्चा है। इनमें मिलावट, अमान्य पदार्थों के मिश्रण, अवधिपार बेचान से लेकर सेवन से हो रही मौतें गंभीर चिंता के विषय के रूप में उभरे हैं। संयुक्त राष्ट्र की ए रिपोर्ट के अनुसार यदि एंटीबायोटिक्स का प्रतिरोध वर्तमान दर से ही बढ़ता रहा तो वर्ष 2050 के आते-आते इस कारण से ही लगभग 10 मिलियन मौतें प्रतिवर्ष होंगी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी मानना है कि वैश्विक स्तर पर उत्पादन की जा रही दवा में से लगभग आधी या तो अनुचित रूप से सलाह या बेचने के कारण घरों में इकट्ठी होती जाती हैं और वातावरण को प्रदूषित करने में अहम भूमिका निभाती हैं। यह भी संभव नहीं है कि दवाओं के बिना जीवन की कल्पना की जाए लेकिन इन्हें उपयोग के साथ-साथ निष्पादन बाबत एक ठोस नीति की आवश्यकता है। अध्ययन के अनुसार दवा के रूप में ली गई एंटीबायोटिक्स तथा अन्य तत्त्व 30-90 प्रतिशत तक मल के साथ वातावरण में आकर अपने विषम प्रभाव छोड़ देते हैं। इस अप्रत्यक्ष रूप से निष्कासित होने के अतिरिक्त यदि सेवन से बची हुई दवाओं का विश्लेषण करें तो तीन चौथाई लोग खरीदी गई दवा के अनुपयोगी, अवधिपार या खराब हो जाने के कारण 10 से 70 प्रतिशत मात्रा विलुप्त के अभाव में अनुपयुक्त तरीके से फेंक देते हैं, जहां 36 प्रतिशत लोग खरीदी गई 10 प्रतिशत दवा फेंकते हैं वहीं 6 प्रतिशत तो लगभग 70 प्रतिशत खरीद को यूं ही निस्तारित कर देते हैं। जहां एक ओर जेब पर अनावश्यक बोझ पड़ता है, वहीं कृषि, जल, वायु आदि भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते हैं।
दवाओं का उपयोग दुरुपयोग में परिवर्तन हो जाता है, इंसान समझ ही नहीं पाता। जानकारी और उपयुक्त विकल्प के अभाव में वह तो दवा को सहज ही कूड़े के साथ फेंक देता है। दवाओं के बचने के पीछे सर्वाधिक दोष तो इसकी पैकेजिंग के कारण है तो साथ ही आम आदमी के मन में दवाओं के विरुद्ध घर में हुई धारणा भी है। विभिन्न माध्यमों एवं स्वैच्छिक अभियानों द्वारा दवाओं के तथाकथित रूप से आवश्यकता से अधिक उपयोग को लेकर भ्रांतियां पैदा की गई हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि किसी भी बीमारी के इलाज के लिए निर्धारित मात्रा में दवा लेने से ही सम्पूर्णता से निजात पाया जा सकता है, लेकिन लगभग एक तिहाई लोग बीमारी के लक्षणों में सुधार के साथ ही उपभोग बंद कर देते हैं। परिणामस्वरूप बची हुई दवा बची रह जाती है। इसी प्रकार, दवा कंपनियों द्वारा भी गैर औचित्यपूर्ण तरीके से पैकेजिंग कर अप्रत्यक्ष रूप से बर्बादी को बढ़ावा दिया जाता है। यह समझ से परे है कि यदि किसी दवा की कुल सामान्य खुराक 6 गोली या कैप्सूल की है तो 10 की स्ट्रिप में क्यों बेची जाती है। उपभोक्ता के स्तर पर बची हुई चार गोली को वापस करना न तो व्यावहारिक है और न ही आर्थिक रूप से उचित। उपयोग करते समय दवा की पैकेजिंग को खोलने में उससे जुड़ी नाम समेत विशिष्ट जानकारियां यथा अवधिपार दिनांक, निर्माण सामग्री आदि न चाहते हुए भी नष्ट हो जाती हैं, जिनके अभाव में भविष्य के उपयोग या पुनर्खरीद का विकल्प समाप्त हो जाता है।
अहम विषय है आमजन के पास दवा एवं इलाज से संबंधित सामग्री के सही प्रकार से निस्तारण की व्यवस्था का नहीं होना। बची हुई दवा आदि के पुनर्खरीद के लिए पर्याप्त व्यवस्था का कानूनी रूप से अभाव होना बड़ा कारण है। एक सर्वे के अनुसार देश में 80 प्रतिशत लोग बची हुई दवा को कूड़ेदान में ही फेंक देते हैं। आवश्यकता है कि दवा के निर्माण के साथ ही उसे निष्पादन के लिए नीतिगत स्तर पर निर्णय लेते हुए पैकेजिंग, मात्र आवश्यक मात्रा में बेचान, पुनर्खरीद तथा नष्ट करने के लिए स्पष्ट नियम बनाए जाएं।

Published on:
28 Oct 2025 04:09 pm
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