के.एस. तोमर, राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार
जब नीति तनावरूपी हो जाती है, तब अर्थव्यवस्थाएं कीमत चुकाती हैं। हाल ही वाइट हाउस की घोषणा ने एच-1बी वीजा प्रायोजन पर चौंकाने वाला 1,00,000 डॉलर शुल्क लगा दिया। इसे प्रशासन ने राजस्व और सुरक्षा के उपाय के रूप में पेश किया, लेकिन इसका असली असर सीधे भारत और अमरीका के बीच प्रतिभा के पुल पर पड़ता है। यह कोई मामूली सुधार नहीं, बल्कि एक कठोर उपाय है, जो भारतीय तकनीकी और पेशेवर समुदाय पर भारी पड़ सकता है।
एच-1बी प्रणाली छोटी नहीं है। वित्तीय वर्ष 2024 में यूनाइटेड स्टेट्स सिटीजनशिप एंड इमिग्रेशन (यूएससीआइएस) ने लगभग 399,395 एच-1बी याचिकाओं को मंजूरी दी, जिनमें से लगभग 141,205 नई नौकरियों के लिए अनुमोदन थे। कानूनी वार्षिक सीमा 85,000 ही रहती है (65,000 सामान्य स्लॉट और 20,000 उच्च शिक्षा के लिए)। यदि नया शुल्क केवल कानूनी सीमा पर लागू किया जाए तो राजस्व लगभग 8.5 बिलियन डॉलर होगा। यदि इसे सभी नई याचिकाओं पर लगाया जाए तो यह 14.1 बिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है। यदि यह सभी स्वीकृत याचिकाओं पर लागू किया जाए तो 40 बिलियन डॉलर तक का आंकड़ा बन सकता है। आज के डॉलर-रुपए दर पर 1,00,000 डॉलर लगभग 8.8 लाख रुपए है। लेकिन केवल राजस्व ही पूरा चित्र नहीं है। भारतीय तकनीकी पेशेवर अमरीकी तकनीकी, वित्त, स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों में गहराई से जुड़े हुए हैं। वे संस्थापक उद्यमी, वरिष्ठ इंजीनियर, अस्पताल विशेषज्ञ और विश्वविद्यालय शोधार्थी हैं। हाल के वर्षों में एच-1बी अनुमोदनों का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा भारतीय नागरिकों का रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी कठोर सीमा का प्रभाव असंगत रूप से भारत पर पड़ेगा। इनके द्वारा सृजित आर्थिक मूल्य- पेटेंट, स्टार्टअप, वेतन स्तर, उपभोग और प्रबंधन नेतृत्व- एक बार के शुल्क से नहीं आंका जा सकता। भारतीय प्रवासी और उद्योग अध्ययन बताते हैं कि अमरीका में भारतीयों की आर्थिक छाप दशकों और अरबों डॉलर में है, केवल छात्र ही सालाना 8 बिलियन डॉलर से अधिक का योगदान देते हैं। यदि गतिशीलता और नवाचार की पाइपलाइन क्षतिग्रस्त होती है, तो यह शुल्क इसे नहीं सुधार सकता।
हर वह कंपनी जो विशेषज्ञ और गतिशील श्रम पर निर्भर है प्रभावित होगी- चाहे वह अमेजन, माइक्रोसॉफ्ट हों या टीसीएस, इंफोसिस जैसी बड़ी भारतीय सेवा कंपनियां- वे सभी महंगे शुल्क और संभावित कॉन्ट्रैक्ट पुनर्मूल्यांकन का सामना करेंगी। छोटे अमरीकी स्टार्टअप, जो एच-1बी कर्मचारियों पर अपनी वृद्धि का आधार रखते हैं, अधिक दबाव में आएंगे। कितने भारतीय जीवन और करियर तुरंत खतरे में हैं, यह आकलन पर निर्भर करता है। रिपोर्ट्स 3 लाख से 7 लाख प्रभावित भारतीयों तक का अनुमान देती हैं। इसका राजनीतिक महत्त्व बड़ा है क्योंकि यह केवल व्यक्तियों तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे समुदायों और भारतीय तकनीकी केंद्रों- बेंगलूरु, हैदराबाद, चेन्नई, पुणे, मुंबई और दिल्ली-एनसीआर- के प्रवाह पर असर डालता है। जिन राज्यों से भारत का प्रमुख सॉफ्टवेयर निर्यात होता है- कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना और तमिलनाडु- वे सीधे और सबसे गंभीर रूप से प्रभावित होंगे।
अमरीकी पक्ष देखें तो तत्काल राजस्व आकर्षक लगता है, लेकिन दीर्घकालिक प्रभाव महंगे होंगे। गतिशीलता में कमी अमरीकी नवाचार को धीमा कर सकती है, स्टार्टअप की स्थापना में देरी, उत्पाद विकास में बाधा और टीम अनुभव के नुकसान की वजह से कंपनियों की लागत बढ़ सकती है। इधर, भारत को इस चुनौती का सामना करने के लिए बहुस्तरीय प्रतिक्रियाओं की जरूरत है। कूटनीतिक बातचीत और दबाव जरूरी है। स्वास्थ्य, महत्त्वपूर्ण आरएंडडी और अकादमिक आदान-प्रदान में छूट की मांग करनी चाहिए। उद्योग दबाव को अमरीकी कॉर्पोरेट हितधारकों के माध्यम से वहां कांग्रेस तक पहुंचाया जा सकता है। इस भारीभरकम शुल्क की वैधता को अमरीकी अदालतों में चुनौती दी जा सकती है। भारत और प्रभावित कंपनियों को कानूनी और प्रशासनिक समीक्षा के साथ डब्ल्यूटीओ और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एकतरफा उपायों की हानिकारक प्रभावों को उजागर करना चाहिए। यूरोप, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के साथ गति बढ़ानी चाहिए और पारस्परिक गतिशीलता तथा तकनीकी सहयोग का आग्रह करना चाहिए।
भारत के लिए चुनौती को रणनीतिक अवसर में बदलना आवश्यक है। व्यवधान को घरेलू क्षमता में तेजी, साझेदार बाजारों में विविधता और अमरीकी कंपनियों तथा वाशिंगटन को यह समझाना कि प्रतिभा गतिशीलता कोई सब्सिडी नहीं, बल्कि 21वीं सदी के नवाचार की ऑक्सीजन है। यदि नई दिल्ली और मुंबई केवल क्रोध में प्रतिक्रिया करती हैं, तो रणनीतिक पहल खो जाएगी।
इस संकट में भारत को केवल नुकसान देखने की बजाय उसे घरेलू नवाचार, स्टार्टअप इकोसिस्टम और वैश्विक साझेदारियों में नए अवसर में बदलने की जरूरत है। उच्च मूल्य वाली नौकरियों और विशेषज्ञता को देश में बनाए रखना, नए निवेश आकर्षित करना और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे न रहना ही दीर्घकालिक रणनीति हो सकती है।