डॉ. ज्योति सिडाना, समाजशास्त्री एवं स्तंभकार
मनुष्य के जीवन जीने के लिए जिस तरह भोजन, कपड़ा और मकान की जरूरत होती है, उसी तरह स्वस्थ जीवन के लिए पर्याप्त नींद की भी आवश्यकता होती है। डिजिटल नेटिव यानी जेन ज़ी इस बात की गंभीरता को नहीं समझ रहा है। भोजन, मकान और कपड़ों का तो शायद कोई न कोई विकल्प हो सकता है लेकिन नींद का कोई विकल्प नहीं हो सकता। यह पीढ़ी किसी भी प्रश्न या समस्या के लिए अपने माता-पिता या अन्य परिवारजनों और शिक्षकों से मदद नहीं लेती, अपितु गूगल और यूट्यूब पर सर्च करती है। देर रात तक जागना और सुबह देर से उठना इस पीढ़ी का स्वभाव बन चुका है। ऐसे में नींद का पूरा न होना सामान्य बात हो गई है।
हाल में राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली संसाधन केंद्र एवं गंगाराम अस्पताल के द्वारा संयुक्त रूप से 12 से 18 वर्ष की आयु के किशोरों की नींद से जुड़ी आदतों और उनके प्रभावों पर किए गए एक शोध में पाया गया है कि जो बच्चे नए शब्द सीखने के तुरंत बाद झपकी लेते हैं, उन्हें उन बच्चों से अधिक याद रहता है जो बच्चे झपकी नहीं लेते हैं। अर्थात झपकी लेने वाले बच्चों की तुलना में झपकी न लेने वाले बच्चों में शब्द धारण क्षमता कम होती है। अध्ययन में यह सामने आया कि सीखने के तुरंत बाद नींद लेने से सीखी गई बातें ज़्यादा समय तक याद रहती हैं। रिपोर्ट के अनुसार देश के एक-चौथाई स्कूली बच्चे पर्याप्त नींद नहीं ले पा रहे हैं, जिससे उनके मानसिक, शारीरिक और संज्ञानात्मक विकास पर गंभीर रूप से असर पड़ रहा है। अनेक अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है कि नींद एक मौलिक जैविक आवश्यकता है। यह मस्तिष्क के अच्छे कामकाज, बेहतर याददाश्त, शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली और बेहतर प्रदर्शन के लिए जरूरी है। हर बच्चों को प्रतिदिन कम से कम 7 से 8 घंटे की नींद अवश्य लेनी चाहिए ताकि मानसिक और शारीरिक संतुलन बना रहे।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज के युग में डिजिटल क्लासरूम, डिजिटल पाठ्यक्रम, डिजिटल परीक्षाएँ, डिजिटल मूल्यांकन ने विद्यार्थियों को ऑनलाइन नागरिक में तब्दील कर दिया है। परिणामस्वरूप उनके सोने-जागने, खाने-पीने में हुए बदलावों के कारण उनकी पूरी जीवनशैली ही बदल गई। बच्चों में नींद की कमी के और भी कारण हैं जैसे स्क्रीन टाइम का अनिश्चित होना, मोबाइल फोन, टैबलेट, लैपटॉप और टीवी जैसे उपकरणों का ज़रूरत से ज़्यादा उपयोग बच्चों की नींद में सबसे बड़ी रुकावट बन चुका है। नींद का पूरा न होना अधिकांश बच्चों में छोटी-सी उम्र में ही अवसाद (डिप्रेशन), थकान, आलस्य, संज्ञानात्मक कमजोरी यानी सोचने और समझने की क्षमताओं में गिरावट उत्पन्न कर रहा है। साथ ही अपर्याप्त नींद उनकी एकाग्रता, भावनात्मक संतुलन और पढ़ाई के प्रदर्शन पर भी असर डाल रहा है। यह एक तथ्य है कि मानसिक रूप से अस्थिर बच्चे या युवा निर्णय लेने में भी असमर्थ अनुभव करते हैं। संभवत: इसलिए बच्चे छोटी-सी उम्र में आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने में जरा भी देर नहीं करते। छोटी से छोटी विफलता उन्हें जिंदगी को समाप्त करने के लिए बाध्य कर देती है। हम यह किस तरह की शिक्षा बच्चों को दे रहे हैं? हम बच्चों को यह क्यों नहीं सिखा पा रहे कि विफलता हार नहीं है, अपितु सीखने का एक और मौका है। थॉमस अल्वा एडिसन को बल्ब का आविष्कार करने से पहले 1000 से अधिक बार विफलता का सामना करना पड़ा था, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना बहुत महत्त्वपूर्ण है।
यह आवश्यक है कि स्कूल, परिवार और नीति निर्माता मिलकर इस समस्या का समाधान करें। तकनीकी परिवर्तन के इस दौर में जब ऑनलाइन पढ़ने की बाध्यता है, तब यह जरूरी हो जाता है कि शिक्षण पद्धति में व्यापक बदलाव किए जाएं। बच्चों के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर समय-सारणी और पाठ्यक्रम निर्धारित किए जाएं। बच्चों को बाल्यावस्था से ही स्वास्थ्य के प्रति भी जागरूक रहना और सफलता-विफलता को जीत-हार के रूप में नहीं लेना सिखाना चाहिए।