भारत और अमरीका का संबंध आज पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। तकनीक, रक्षा, इंडो-पैसिफिक, आपूर्ति शृंखला, निवेश और नवाचार में दोनों देशों की साझेदारी अत्यंत मूल्यवान है लेकिन इस साझेदारी की मजबूती परस्पर सम्मान पर टिकी है न कि किसी दबाव या शर्त पर।
- द्रोण यादव, 'अमरीका बनाम अमरीका' पुस्तक के लेखक
भारत और अमरीका के बीच 10 दिसंबर को होने वाली नई व्यापार वार्ता ऐसे समय में शुरू हो रही है, जब कूटनीतिक वातावरण सामान्य नहीं है। रूस से भारत की बढ़ती ऊर्जा साझेदारी को लेकर वाशिंगटन पहले से ही असहज था और हाल में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा ने इस असहजता को और तीखा कर दिया है।
अमरीका के कुछ नीति विशेषज्ञों में यह उम्मीद दिखाई दे रही है कि व्यापार वार्ता को एक प्रकार के दबाव के रूप में इस्तेमाल कर भारत को भू-रणनीतिक प्राथमिकताओं बदलने के लिए प्रेरित किया जा सकता है, विशेषकर रूस को लेकर। परंतु यह उम्मीद भारत के इतिहास और उसकी विदेश नीति के मूल स्वभाव को समझने में एक गंभीर भूल साबित हो सकती है। भारत की रणनीतिक स्वायत्तता कोई तात्कालिक प्रवृत्ति नहीं, बल्कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से उसकी विदेश नीति का मूल आधार रही है। शीत युद्ध के चरम पर, जब दुनिया अमरीका और सोवियत संघ दो खेमों में बंटी थी, तब भारत ने किसी भी खेमे में शामिल होने से इनकार किया। इतना ही नहीं, भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नॉन अलाइंड मूवमेंट) का नेतृत्व भी किया और यह स्पष्ट कर दिया कि भारत किसी महाशक्ति के दबाव में नहीं आएगा, बल्कि अपने राष्ट्रीय हितों के आधार पर निर्णय लेगा। यह तटस्थता नहीं, बल्कि स्वाधीन सोच और संप्रभु निर्णय लेने की क्षमता का उद्घोष था।
ट्रंप अपनी 'अमरीका फस्र्ट' की राजनीति को सार्थकता देने के लिए सभी देशों पर लगातार अपने टैरिफ की ताकत का प्रदर्शन कर रहे हैं और इस उम्मीद में हैं कि भारत को भी इस दबाव में ले लेंगे। यहां समझने की बात यह भी है कि ट्रंप अपनी नीतियों में भले ही बहुत आक्रामक नजर आते हों लेकिन अमरीका की यह दबाव नीति पुरानी है। भारत-बांग्लादेश युद्ध के दौरान भी अमरीका ने खुले तौर पर पाकिस्तान का समर्थन किया। उस युद्ध में जीत के बाद भारत ने तुरंत सोवियत संघ के साथ मैत्री संधि पर हस्ताक्षर किए, जो अमरीकी दबाव का ही परिणाम था।
1974 और 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद भी अमरीका ने व्यापक प्रतिबंध, तकनीकी नाकेबंदी और वैश्विक स्तर पर भारत को अलग-थलग करने के प्रयास किए। लेकिन इन प्रयासों ने भारत को रोकने के बजाय और मजबूत बना दिया। भारत ने अपने मिसाइल, अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रम को स्वदेशी आधार पर खड़ा किया और अंतत: वही अमरीका 2005 में परमाणु समझौते के जरिए भारत के साथ नई साझेदारी की तलाश करने लगा। यह इस बात का सबूत है कि दबाव ने कुछ नहीं बदला, लेकिन भारत की अडिग संप्रभुता ने दुनिया की धारणाएं जरूर बदलीं।
भारत और अमरीका का संबंध आज पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। तकनीक, रक्षा, इंडो-पैसिफिक, आपूर्ति शृंखला, निवेश और नवाचार में दोनों देशों की साझेदारी अत्यंत मूल्यवान है लेकिन इस साझेदारी की मजबूती परस्पर सम्मान पर टिकी है न कि किसी दबाव या शर्त पर। यदि अमरीका व्यापार वार्ता को भू-रणनीतिक संरेखण का उपकरण बनाने की कोशिश करेगा, तो इससे संबंधों को मजबूती नहीं, बल्कि क्षति पहुंचेगी। भारत को 10 दिसंबर की वार्ता में खुले मन से जाना चाहिए, लेकिन साफ रेखाएं खींचकर। व्यापार में सहयोग का स्वागत हो सकता है, तकनीकी भागीदारी भी उपयोगी है, परंतु व्यापार के बदले विदेश नीति बदलने का कोई प्रश्न नहीं उठता। भारत को अमरीका का अहम साझेदार होना चाहिए, लेकिन उस पर निर्भर नहीं। अमरीका की प्रतिबंध-प्रधान विदेश नीति, पाक के प्रति उसका बदलता रवैया और वैश्विक गठबंधनों में उसके अचानक बदलाव ये संकेत देते हैं कि किसी एक शक्ति पर अत्यधिक निर्भरता भारत की संप्रभुता के लिए जोखिमपूर्ण होगी।
यह वार्ता पीएम मोदी के लिए भी अपनी नीति स्पष्ट करने का एक और अवसर है। भारत सहयोग चाहता है, पर शर्तों पर नहीं। साझेदारी चाहता है, पर दबाव में नहीं। भारत अपनी संप्रभुता को समझौते का विषय नहीं बना सकता। अमरीका को समझना होगा कि भारत की स्वतंत्रता उसकी कमजोरी नहीं, साझेदारी की सबसे बड़ी ताकत है। किसी तरह का दबाव सदा विफल रहा है, सम्मान ही वह नींव है, जिस पर स्थायी और मजबूत भारत-अमरीका संबंध खड़ा हो सकता है।