अर्थ और काम दोनों शरीर और मन के क्षेत्र हैं। कामना बुद्धि के अभाव में स्वच्छन्द है। कर्म और आत्मा का समन्वय बैठता ही नहीं। कर्म क्षर कामना की अभिव्यक्ति मात्र रह जाता है। सूक्ष्म संस्थाओं से सम्पर्क आवश्यक भी नहीं है।
हमारे जीवन में जहां भी स्त्री स्वरूप की व्याख्या होती है उसे माया का पर्याय कह दिया जाता है। हमारा सम्पूर्ण देश आज इस एकपक्षीय अवधारणा की मार खा रहा है। ‘पुरुष प्रधान’ समाज की अवधारणा- भले ही गलत हो- ने प्रत्येक समाज को काल्पनिक बेडिय़ों में जकड़ रखा है। सम्पूर्ण शिक्षा पुरुषों के लिए- पेट भरने के लिए दी जा रही है। उसका बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि स्त्री भी पुरुष की भूमिका में रूपान्तरित होती चली जा रही है।
जब स्त्री स्वयं के मूल स्वरूप का विकास छोड़ बैठी, तब पुरुष में स्त्रैण तत्त्व कहां दिखाई देगा? नई पीढ़ी में तो शिक्षित माताएं भी पौरुष-पथ पर चलने लगीं। स्वत: ही समाज 'पुरुष-प्रधान’ हो गया। जबकि वेद विज्ञान में पुरुष 'आत्मा’ का वाचक है। ऋत भाव जब सत्य में परिणत होता है तब सृष्टि में 'अव्यय पुरुष’ प्रथम सत्य के रूप में अवतरित होता है तथा वह सूक्ष्म से स्थूलतम सृष्टि में परिव्याप्त हो जाता है। गीता में कृष्ण कहते हैं कि मैं ही 'आत्मा’ हूं। हे गुडाकेश (निद्राजित)! मैं समस्त भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूं तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूं—
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।। (गीता 10.20)
अग्नि-सोम सदा साथ रहते हैं, क्योंकि मूल में दो हैं ही नहीं। हमारी सृष्टि युगल सृष्टि है। भीतर दो नहीं है। हर प्राणी अद्र्धनारीश्वर है। आधा पुरुष-आधा नारी। पुरुष में पौरुष की प्रधानता रहती है, स्त्री में स्त्रैण भाव की। पुरुष में शरीर बल, अहंकार, आक्रामकता, अतिक्रमण का भाव अधिक होता है। स्त्री में वात्सल्य, माधुर्य, करुणा, संवेदना, लालन-पालन का भाव, मातृत्व, सेवा आदि भाव मुख्य होते हैं। आज जैसे-जैसे शिक्षा का प्रभाव बढ़ रहा है। लड़कों में स्त्रैण भाव घटता जा रहा है। लड़कियां भी लड़कों के जैसा व्यवहार पसन्द करने लगीं हैं। भौतिकवादी परिवेश में स्त्री जीवन के चार पहलुओं में श्रद्धा, वात्सल्य, स्नेह, काम- में से आरंभ के तीनों अल्पता को ग्रहण कर लेते हैं। काम तो निर्जीव पदार्थों से प्रेम रह गया।
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति- रूप में यही अव्यय पुरुष प्रत्येक जड़-चेतन के केन्द्र में विद्यमान होने से सभी पुरुष हैं। अत: स्त्री-पुरुष दोनों कठोर मन वाले बुद्धिजीवी, समय के आवरण में (in time) जीने लगते हैं। स्त्री का भी धरातल (space) पीछे छूट जाता है। कभी घर का खूंटा होती थी। भावी जीवन की कल्पनाएं धराशायी होने लगीं। विवाह, सन्तान के लिए प्रार्थना-अनुष्ठान-देवी देवता उपयोगी नहीं रहे। लिव-इन और एकल जीवन में तो इनका अस्तित्व ही नहीं रहा। आज तो मानव भी पशुवत् जीवनयापन करने लगता है। जबकि समस्त 84 लाख योनियों में श्रेष्ठतम मानव है। स्वतंत्र कर्म करने की योग्यता मानव में ही है।
अन्य सभी भोग योनियां हैं। आधुनिक जीवनशैली में माया का लक्ष्य पीछे रह गया। कौन ब्रह्म और किसका विवर्त? शास्त्रों में 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ कहा है। श्रुति जहां प्राण सत्यात्मक-हृदयरूप-आत्म सत्य का प्रतिपादन करती है, वहां 'नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म’-भूत सत्यात्मक-पिण्डरूप-विश्वसत्य की बात करती है। नाम-रूप-कर्मात्मक विश्वसत्य से ही हृदयस्थ प्राणसत्य चारों ओर से आवृत्त है। केन्द्रात्मक प्राणसत्य-अमृत कहा गया। यही मनु तत्त्व है।
विश्व के सभी जड़-चेतन पदार्थ मनु तत्त्व की सन्तति हैं। तथापि मानव के अलावा अन्य पदार्थों में स्वतंत्र केन्द्रस्थ उक्थ रूप से प्रतिष्ठित न होकर केवल अर्क रूप-रश्मि रूप से प्रतिष्ठित रहता है। अत: मनु से साक्षात उपकृत नहीं है। मानव में स्वतंत्र उक्थ रूप प्रतिष्ठित है। विश्व को आप एक अव्यक्त भाव, तीन व्यक्त भाव से निर्मित मान सकते हैं। (भूपिण्ड-चन्द्रमा-सूर्य तथा सर्वसार अव्यक्त तत्त्व)। अव्यक्तांश मानव का आत्मा कहलाता है। यही प्राणमूर्ति अव्यक्तात्मा मनु तत्त्व है। यही आत्मभाव पूर्ण अभिव्यक्ति के द्वारा 'मानव’ सर्ग को श्रेष्ठतम रूप में प्रकट करता है। अन्य प्राणी जहां प्रकृति तंत्र से संचालित हैं, वहां मानव स्व पुरुषार्थ से स्वतंत्र है। पशु आदि में जीव है, किन्तु मनु तत्त्व नहीं है। आत्मा मात्र विभूति रूप है।
केवल शरीर तो अचेतन-जड़भूतों की श्रेणी है। मन के कारण चेतन-इन्द्रिय-समनस्क श्रेणी में आ सकते हैं। बुद्धि से चेतन-समनस्क-बुद्धियुक्त विशेष पशु आदि की श्रेणी में आता है। मानव भी इन तीन श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी का जीव ही कहला सकता है। प्राणी-जीव-जन्तु की श्रेणी ही हैं ये। चौथे आत्मरूप की पूर्णाभिव्यक्ति के कारण ही मानव कहलाता है। चारों पर्वों—(शरीर-मन-बुद्धि-आत्मा) के लिए ही पुरुषार्थ चतुष्ट्य की व्यवस्था की गई। इनमें भी आज अर्थ और काम ही रह गया। धर्म और मोक्ष का लोप हो जाने से भी स्त्री-पुरुष के अद्र्धनारीश्वर स्वरूप का विघटन हुआ है।
अर्थ और काम दोनों शरीर और मन के क्षेत्र हैं। कामना बुद्धि के अभाव में स्वच्छन्द है। कर्म और आत्मा का समन्वय बैठता ही नहीं। कर्म क्षर कामना की अभिव्यक्ति मात्र रह जाता है। सूक्ष्म संस्थाओं से सम्पर्क आवश्यक भी नहीं है। क्षणिक क्षोभ का परिणाम है। सृष्टि में अग्नि (पूर्णता में) तथा सोम की यज्ञ प्रक्रिया का परिणाम होता है। सोम तो आप की विरल अवस्था है। अग्नि तो घनात्मक रूप में रहता है। अर्थात् अग्नि की चारों अवस्थाएं मिलकर ही सोम की परिणति बनती हैं। ब्रह्माग्नि-देवाग्नि-भूताग्नि- वैश्वानर का समन्वय ही आहुति द्रव्य का पूर्ण भोक्ता बन सकता है। यही क्रमश: अव्यय, अक्षर, क्षर और शरीर की दाहक-पाक अग्नि है। इन्हीं से गुजरता हुआ सोम तत्-तत् शरीर की प्रतिष्ठा बन पाता है।
यदि माया भाव सुप्त रहता है, तब सूक्ष्म शरीर में ही जीवात्मा स्पन्दित होकर रह जाता है। पुरुष हृदय का इन्द्र प्राण अर्क बनकर बाहर निकलता है, वहीं स्त्री शरीर का इन्द्रप्राण भी अन्न की तलाश में निकलता है। दोनों विष्णु प्राण बनकर एक-दूसरे के हृदय में ब्रह्मा तक पहुंचते हैं। स्त्री-पुरुष दोनों के ब्रह्म भाग पुरुष शरीर में प्रतिष्ठित रहते हैं। माया की सुप्त अवस्था में ब्रह्मांश का प्रवाह नहीं हो पाता। कन्या सन्तान का मार्ग प्रशस्त होता है। नया जीवात्मा बाहर से आता है। माया को यहां से पुरुष की आकृति के अंश प्राप्त होते हैं। पुरुष की शारीरिक अपूर्णता के कारण अधिकांशत: स्थानान्तरण स्त्री के माया भाव की सुप्त अवस्था में ही होता है। अत: यज्ञ क्रिया के अभाव में परिणाम भी शून्य ही रहते हैं। माया के जागरण के लिए काल पर्याप्त नहीं होता।
महामाया जहां विद्या भाव से जुड़ी है, वहीं योगमाया अविद्या का क्षेत्र है। आज तो जीवन प्रकृति पर आकर ठहरने लगा है। विवाह न होना, संतान की कामना न होना स्त्री के तंत्र को प्रभावित करता है। सूक्ष्म स्तरों पर अनिच्छा के कारण उसके हृदय में अशनाया पैदा नहीं हो पाती। सब रंजन के रूप में भूताग्नि तक सीमित रहता है। दम्पति भी यही चाहते हैं। औषध प्रयोग से सभी शुक्राणु भी निष्क्रिय हो जाते हैं। इसी के साथ शरीर का रक्षा तंत्र भी आहत होता है जो नए रोगों के लिए मार्ग प्रशस्त करता है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com