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सृष्टि पूर्व ब्रह्म जब गर्भ में था तब अदृश्य ही था। बाहर निकला योगमाया के आंचल में, तब भी अदृश्य है। पहले समुद्र से बाहर निकला - ब्रह्म रूप में, अव्यय पुरुष बनकर। ब्रह्म केन्द्र में था और योगमाया परिधि थी। यही पहली आकृति बनी। यह परिधि ही ब्रह्म का निवास कहलाया। जैसे-जैसे सृष्टि आगे बढ़ी, माया ने पहले निवास तैयार किया, फिर ब्रह्म ने अव्यय रूप में उसमें प्रवेश किया। सातों लोकों की प्रजा-सूक्ष्म से स्थूल तक अपनी प्रकृति के सहारे उत्पन्न की; आकृतियां बनाई और लीलाएं की।
अपनी इसी योगमाया को वर्णित करते हुए कृष्ण कहते हैं कि अपनी योगमाया से आवृत्त मैं सबको प्रत्यक्ष नहीं होता हूं। यह मोहित लोक (मनुष्य) मुझ जन्मरहित, अविनाशी को नहीं जानता है—
नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।। (गीता 7.25)
योगमाया ही सृष्टि का आवरण है। माया गुणातीत अवस्था है। यह समस्त सृष्टि ब्रह्म की इच्छा एकोऽहं बहुस्याम् की परिणति है प्रत्येक प्राणी ब्रह्म का विवर्त है अत: सभी माया से आवरित ब्रह्म हैं। न कहीं अकेला ब्रह्म होता है, न ही अकेली माया। अत: प्रत्येक प्राणी अर्द्धनारीश्वर है सृष्टि का। नर में ब्रह्म भाव का बाहुल्य तथा नारी में माया भाव की बहुलता रहती है। स्थूल जगत में पुरुष ब्रह्म की तथा स्त्री माया की प्रतिकृति है, साकार, सगुण व सजीव प्रतिमा है।
स्त्री ही पुरुष की दृष्टि का आवरण बनती है। माया भी वही, योगमाया भी वही है। पूर्णता हेतु नर और नारी को अपने अद्र्धांश को भी पोषित करना आवश्यक है। अत: भारतीय परम्परा में विवाह-संस्कार महत्त्वपूर्ण है। वर्तमान भौतिकवादी परिवेश में पुरुष का स्त्रैण भाग अब पूर्ण पोषित नहीं होता। स्त्री का प्रकृति रूप ही जीवन को चलाता है। अत: स्त्री का सूक्ष्म अंश भी पुरुष के लिए तो आवरित ही रहता है। जिस समय पुरुष अपने भीतर के सूक्ष्म भाग पर अधिकार कर लेगा, स्त्री की सूक्ष्मता का एक अंश तो तुरन्त स्पष्ट हो जाएगा।
पुरुष भी भीतर आधा स्त्री है। वहां भी माया के सारे रूप कार्य करते हैं। स्त्री शरीर में इनका स्वरूप प्रधानता लिए रहता है। माया दोनों शरीरों में गूढ़तम रहती है- ब्रह्मांश के आवरण रूप में। माया अंधकार का नाम है- ब्रह्म सदा इस अंधकार में ही निवास करता है। माया मार्ग कब देती है? जब पुरुष अपने अंश को दान करना चाहता है। माया की स्वीकृति के बिना संभव नहीं है। माया के लिए भी तप-योग-प्रार्थना की आवश्यकता है। देवी है, ब्रह्म की शक्ति है।
साधारण मनुष्य अविद्या के आवरण में जीता है। क्योंकि उसके जन्म का आधार ही अविद्या है। कर्मफलों का भोग करने को ही जन्म लेता है। मनुष्य शरीर अपरा का रूप है—पंच महाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार। चूंकि मन, बुद्धि, अहंकार प्रकृति (सत्व-रज-तमोगुण) से आवरित हैं, अत: अविद्या का सहचर भाव होते ही इनके कई स्वरूप प्रकट हो जाते हैं।
अधिकांशत: व्यक्ति इस जाल से बाहर निकल ही नहीं पाता। देह अचेतन होती है किन्तु हमारी सारी कामनाएं देह से जुड़ी हैं। इसकी चकाचौंध, ऊर्जाओं का तांडव, लक्ष्मी का आकर्षण और भी जाने क्या-क्या इन्द्रजाल! व्यक्ति मुक्त हो ही नहीं पाता। प्रत्येक इन्द्रिय के अपने विषय होते हैं। वे भी इन्द्रियों द्वारा मन पर गिरते रहते हैं। एक मकड़ी जैसा जाल बन जाता है। कभी दृश्य, कभी ध्वनि, तो कभी स्वाद! आज शरीर भी भोग का, मनोरंजन का बड़ा साधन बनता जा रहा है, निरर्थक भाव के साथ। सामूहिक रंजन एवं सामाजिक परम्पराएं भी शरीर-तंत्र को खिलौना बना बैठे।
शरीर के साथ मन तो होता है, किन्तु चंचलता के साथ। बुद्धि भी जड़ जैसी है। इसमें संवेदना नहीं होती। इस स्थिति को पानी के बुद्बुद् जैसी कह सकते हैं, क्षणिक! इसके होने, नहीं होने का कोई अर्थ नहीं है। देर से शादी होना भी इस वातावरण को हवा देता है। सूक्ष्म शरीर और मन कारण शरीर को छू नहीं पाते। माया सुप्त रहती है।
ब्रह्म को क्रियाशील करने के लिए माया का योग पहली अनिवार्यता है। इसके लिए भिन्न प्रकार का वातावरण बनाया जाता है। मनोयोग, कामनाएं, संकल्प, प्रार्थना, मनुहार जैसे यत्न किए जाते हैं। माया के जागरण के बिना अन्य सभी प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। हां, भाग्य भी दूसरा कारण है जो फल से वंचित रख देता है।
जैसे कई फूल अतिसुन्दर होते हैं, किन्तु सुगन्ध नहीं होती। कुछ सुगंधित होते हैं, सुन्दर नहीं होते। कुछ सुन्दर भी और सुगंध वाले भी। कुछ पेड़ों पर फूल ही नहीं आते। कुछ पर फूल के साथ कांटे भी रहते हैं। कुछ में केवल कांटे ही होते हैं। ये सब भावनाओं की श्रेणियों की तरह समझे जा सकते हैं। जैसा भाव, वैसी अभिव्यक्ति। मुझे ब्रह्म का अंश लाना है तो माया को मनाना ही होगा।
यहां एक बड़ी रहस्यपूर्ण बात है। बीज पुरुष में रहता है, माया के आवरण में। ले जाना उसे दूसरे शरीर में होता है। स्त्री स्वयं माया है, कामना माया है। मन सृष्टि में केवल एक ही होता है- अव्यय पुरुष का मन। यह अव्यय पुरुष कारण शरीर है। शरीर की कामना यहां तक नहीं पहुंचती है। वे तो अधोगामी होती हैं।
कामना से प्राणों में स्पन्दन होता है। मन को भीतर जोडऩा जरूरी है। चूंकि स्त्री का बीजांश भी पति हृदय में रहता है, कन्यादान के माध्यम से पिता पुत्री के प्राणों को वर के प्राणों से मिला देता है। तब इनका मनोयोग इनको युक्त कर देता है। यह महामाया का क्षेत्र है। इनका मनोयोग ही अक्षर प्राणों को अव्यय के साथ जोड़े रखता है। मनोयोग ही माया को विस्थापित करके ब्रह्मांश प्राप्ति में सफल होता है।
ब्रह्म रस रूप है, माया बल रूप है। यही सृष्टि का मूल द्वन्द्व भी है। जहां रस की प्रधानता रहती है, वहां जीव मुक्तिसाक्षी हो जाता है। जहां माया बल प्रधान होता है, वहां सृष्टि आगे बढ़ती है। प्रत्येक शरीर में माया की इस भूमिका का प्रभाव भी दिखाई देता है। जब सृष्टि कामना है, तो महामाया हृदय से बाहर सृष्टि से अन्न ग्रहण करती है। विष्णु यह अन्न लाते हैं- ब्रह्मा तक। अव्यय का प्राण तत्त्व ही वाक् के निर्माण की ओर अग्रसर होता है।
ब्रह्मा-विष्णु एवं इन्द्र इन तीनों को 'हृदय’ कहा जाता है। जैसे-अव्यय की एक माया है, उसी तरह इन तीनों की भी माया पृथक्-पृथक् है। ब्रह्मा को परिच्छिन्न करने वाली माया का नाम ब्रह्ममाया है। जिस माया से विष्णु का स्वरूप बनता है उसे विष्णुमाया कहते हैं। इसी से संसार का पालन होता है। तीसरी माया का नाम है-शिवमाया। तीनों ही मायाएं उस महामाया में युक्त रहती हैं अर्थात् अक्षर अव्यय में बद्ध रहता है। इसलिए इन तीनों मायाओं को योगमाया भी कहा जाता है। अव्यय की प्राण कला अक्षर पुरुष का तथा वाक्कला क्षर पुरुष का निर्माण करती है। अक्षर की ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि व सोम इन पांच कलाओं से प्राण, आप, वाक् अन्न-अन्नाद ये पांच विकारक्षर उत्पन्न होते हैं। इन पांचों की जब पांचों में आहुति हो जाती है तो इस सर्व-हुत यज्ञ से स्वयम्भू-परमेष्ठी-सूर्य-चन्द्र एवं पृथ्वी-ये पांच यज्ञक्षर उत्पन्न होते हैं। इन्हीं पांचों से आगे की सारी सृष्टियां उत्पन्न होती हैं। इसलिए इनको 'विश्व-सृट्’ भी कहा जाता है।
इन अक्षर-क्षर प्रकृतियों से घिरे अव्यय में योगमाया के उदय के कारण अनन्त पुरुष उत्पन्न होते हैं। उन्हीं को जीव कहा जाता है। अत: जीवों की उत्पत्ति का एकमात्र कारण ये तीनों योगमायाएं हैं। प्रत्येक जीव की योगमाया भी स्वतन्त्र हो जाती है। जितने जीव होते हैं, उतनी ही योगमायाएं हो जाती हैं। माया के साथ ही ब्रह्म भी (जीव इच्छा के अनुसार) माता के गर्भ में प्रविष्ठ होता है। योनि का निर्धारण कर्मों के अनुरूप महामाया (परा प्रकृति) के स्तर पर होता है। माया का समुद्र बड़ा ही गहन है। इसे पार करना अत्यन्त ही कठिन है, इसलिए आगम कहता है कि भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींच कर मोह में डाल देती है—
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

Published on:
20 Dec 2025 09:49 am
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