कांग्रेस अपना स्थापना दिवस मना रही है। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में राष्ट्रीय मुद्दों तथा दल के स्वरूप-प्रशिक्षण पर भी विचार हुआ है।
कांग्रेस अपना स्थापना दिवस मना रही है। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में राष्ट्रीय मुद्दों तथा दल के स्वरूप-प्रशिक्षण पर भी विचार हुआ है। एक दौर में देश की सरताज पार्टी आज जमीन पर खड़ी है। कहने को विपक्षी दल है, किन्तु हैसियत तो पूरी तरह खो बैठी है। संगठन भी लगातार कमजोर हुआ है। नेतृत्व में लोकतंत्र की अवधारणा का पूरा अभाव है। भ्रष्टाचार भी राजकाल में सीमाएं लांघ चुका था। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में 100 सीटें आना इसकी विरासत ही है। वर्तमान तो हाथ से छूटता जा रहा है।
वर्ष 2014 और 2019 के आंकड़े शर्मनाक हैं। भाजपा नेतृत्व ने सांस्कृतिक परिवेश, राष्ट्र भावना तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहारे राष्ट्रीय धरातल पर अपने आपको बड़ा कर लिया। कांग्रेस आज भी भारतीयता से कोसों दूर है। आज तो शासक वर्ग ही रह गया कांग्रेस में- कार्यकर्ता खोने लगे हैं।
इसका बड़ा कारण स्वयं नेतृत्व ही रहा है। नेतृत्व का स्वत्वाधिकार ही कांग्रेस को खा रहा है। इंदिरा गांधी तो किसी कांग्रेसी नेता में नेतृत्व की क्षमता उभरते हुए देखना ही नहीं चाहती थीं। उसे हाथों-हाथ ठिकाने लगाने के लिए जानी जाती थीं। तब साहसी-स्पष्टवादी राष्ट्रभक्त कैसे उभरते? कमोबेश हालात आज भी वैसे ही हैं। कांग्रेस में आज भी सबसे समझदार राहुल-प्रियंका की जोड़ी ही मानी जाती है। क्या देश राहुल की भूमिका-विपक्ष के नेता के रूप में- नहीं देख रहा? उनका कितना चिंतन धरती से जुड़ा है!
कांग्रेस जब शीर्ष पर थी, तब कार्यकर्ताओं की उपेक्षा भी चरम पर पहुंच चुकी थी। भारत जैसे बहुमुखी जीवनशैली के देश में कांग्रेस के ही समय-समय पर टुकड़े हुए। आज भी वरिष्ठ नेताओं को दल बदलते देखा जाता है। कांग्रेस आज समष्टि के स्थान पर व्यष्टि (व्यक्तिवाचक) होकर रह गई है। लोग निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए ‘अति विनम्र’ दिखाई देते हैं। राजस्थान ने भी भाजपा की तरह पिछले दस साल तक पांच-पांच साल की बारी से कांग्रेस का राज देखा है। क्या देखा? अशोक गहलोत ने शीर्ष नेताओं की आज्ञा की अवहेलना की और अपनी भूमिका से राजस्थान खो दिया।
भाजपा क्यों आई? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बूथ स्तर की पकड़ से। जनभावना से मेल खाते हुए। कांग्रेस के पास इससे ज्यादा संकल्पवान संगठन था- सेवादल, जो केवल प्रबंध के अभाव, कार्यकर्ताओं की उपेक्षा से धराशायी हो गया। कांग्रेस भी धराशायी जैसी स्थिति में पहुंच चुकी है।
संघ हिन्दूवादी- सांस्कृतिक संगठन है, जो शाखाओं के सहारे बड़ा हुआ है। सेवादल समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष-राजनीतिक संगठन रहा है।
इसका जोर चुनाव प्रचार-चुनाव प्रबंधन पर रहा है। दोनों संगठनों में वैचारिक विरोधाभास रहा है। सेवादल कभी जमीनी रणनीति-वोटर संपर्क में निपुण था। हर 35 बूथों पर एक मंडल सक्रिय हुआ करता था। आज बस अवशेष बचे हैंं। बाकी नेता ही नेता हैं।
कांग्रेस नेतृत्व भूल गया कि दल को शीर्ष स्थान पर बनाए रखने के लिए सेवादल की भूमिका अहम थी। सौ साल पूर्व जन्मा सेवादल स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा था। इसकी स्थापना वर्ष 1920 के असहयोग आंदोलन से प्रेरित थी। सेवादल की स्थापना 1 जनवरी 1924 को हिन्दुस्तानी सेवा मंडल के रूप में हुई थी। 1931 में कांग्रेस कार्य समिति ने हिंदुस्तानी सेवा दल का नाम बदलकर कांग्रेस सेवा दल करने का निर्णय लिया, जिससे यह कांग्रेस का केंद्रीय स्वयंसेवी संगठन बन गया। कांग्रेस की जमीनी ताकत बढ़ाने के लिए इसका स्वरूप गठित हुआ था। आज इसके साथ ही कांग्रेस की जमीनी ताकत भी कमजोर पड़ गई। साइमन कमीशन के विरोध के संदर्भ में इसकी स्थापना हुई थी।
लाहौर में ‘साइमन गो बैक’ के नारे के साथ बड़ा शांतिपूर्ण मार्च निकला था। इस पर लाठीचार्ज भी हुआ, किन्तु अनुशासन बनाए रखा था। पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में यह ब्रिटिश सुधारों के विरोध में पहला जनआंदोलन था। वर्ष 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन किया। जेल गए, सत्याग्रह किया, जमीनी ताकत का परिचय दिया। सेवा और त्याग की विरासत को सेवादल ने जीवित रखा। आज यह भूमिका तो शायद कागजों में भी नहीं मिले।
कांग्रेस में सेवादल को अनुशासन और जज्बे के लिए जाना जाता रहा है। इसका संगठनात्मक ढांचा और संचालन का तरीका सेना जैसा रहा है। कांग्रेस में शामिल होने से पहले सेवादल से जुड़ना जरूरी होता था। इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी की कांग्रेस में एंट्री सेवादल के माध्यम से ही कराई थी। नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक सब सेवादल कार्यकर्ताओं को कांग्रेस का सच्चा सिपाही कहते रहे हैं।
समय परिवर्तनशील है। जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। दल में आंतरिक कलह, उपेक्षा का भाव,फंडिंग की कमी से कमर टूटी। इंदिरा गांधी के बाद तो सक्रियता अल्पतम हो गई थी। भारत जैसे देश में नेता अपनी जगह हैं, किन्तु कार्यकर्ता के बिना चुनाव जीतना सहज नहीं है। केवल धन और प्रचार का प्रभाव व्यक्तिगत संपर्क से बड़ा नहीं हो सकता। इस दृष्टि से कांग्रेस कंगाल है।
पिछले सालों में कांग्रेस शासन में सेवादल तो चर्चा में ही नहीं था। कई जगह भाजपा के प्रत्याशी नए थे, कुछ भ्रष्ट थे, कुछ अक्षम थे किन्तु सहजता से जीत गए। क्यों? बूथ लेवल पर काम नहीं हुआ। मतदाता की शिकायतें अनसुनी रह गईं। सत्ता में नेता और अधिकारियों का गठजोड़ प्रदेश के विकास को लील गया। कांग्रेस पिछली भाजपा सरकार से एक प्रतिशत भी अच्छी साबित नहीं हुई। दिल्ली अपने हिस्से को पाकर खुश था।
कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर होने वाली बैठकों में सेवादल के पुन: उत्थान पर प्राथमिकता से चर्चा-बहस-निर्णय होना चाहिए। पुनर्गठन, प्रशिक्षण, प्रबंध तथा संघ के स्तर का संचालन भी चर्चा में आना चाहिए। सेवादल ही कांग्रेस की ऑक्सीजन है- नेता नहीं। कांग्रेस लोकतंत्र की ऑक्सीजन है, जिसे भाई-बहन नहीं समझ पा रहे। प्रश्न सत्ता को जनता के हाथों सौंपने का है। तभी शासन, जनता का और जनता के लिए होगा।