इस देश में राज करने वाले ‘अंग्रेजों’ की भाषा आम व्यक्ति (शासित) न तो पढ़ सकता है, पढ़ ले तो न समझ सकता है। हम आज इसी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं।
गुलाब कोठारी
इस देश में राज करने वाले ‘अंग्रेजों’ की भाषा आम व्यक्ति (शासित) न तो पढ़ सकता है, पढ़ ले तो न समझ सकता है। हम आज इसी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। कार्यपालिका, न्यायपालिका, डॉक्टर, वकील, पुलिस आदि की फाइलों में जो भाषा दबी रहती है, उसको समझने के लिए दुभाषिए की आवश्यकता पड़ती है। तब क्या यह स्पष्ट नहीं है कि हम पर हमारे ही लोग अभी तक शासक के पद पर आसीन हैं? पिछले 75 वर्षों में उन्होंने भी स्वयं को भारतीय सिद्ध करने का प्रयास नहीं किया। आज भी अंग्रेजी भाषा ही नहीं, संस्कृति का भी ताज पहनकर गौरवान्वित हैं। चमड़ी के अंग्रेज चले गए, दमड़ी के अंग्रेज तो जाने वाले लगते भी नहीं हैं।
विधायिका ने भी संविधान की अंग्रेजी के कारण ही देश के सम्मान को तार-तार ही किया है। आज तक भी कर रहे हैं। तब लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा कैसे फलीभूत हो सकता है? हां, तंत्र फलीभूत हो रहा है। भौतिक विकास, विकसित संस्कृतियों की अंधी नकल हो रही है। भारतीय ज्ञान की गरिमा, गौरव और गहनता धराशायी हो गए हैं। बाहर की चमड़ी चमके और भीतर शरीर खोखला हो, बुद्धि गिरवी रखी हो, मन अभावग्रस्त और शासन से त्रस्त हो तो क्या व्यक्ति सही अर्थों में स्वतंत्र माना जाएगा? शिक्षा में प्रकृति नहीं, जीवन के स्पन्दन नहीं, अधिदैव नहीं। तब क्या शिक्षित व्यक्ति के जीवन में स्पन्दन की अनुभूति हो पाएगी? उसका अहंकार उसे पथरीला बनाकर रख देगा। शिक्षा का अहंकार, पद का अहंकार, उम्र और सुन्दरता का अहंकार। ये सब एक शरीर में एकत्र हो जाएं तो व्यक्ति क्या रावण नहीं हो जाएगा! अहंकार मृत्यु का पर्याय है, अभाव का पर्याय है, पतन का पर्याय है। आज हमारे लोकतंत्र के तीनों पायों का यही स्वरूप मुखरित है। जनता के साथ आज भी गुलामों जैसा ही व्यवहार किया जाता है।
यह भी पढ़ें : दोगे तो ही मिलेगा
शासक वर्ग स्वयं को कितना अभावग्रस्त मान रहा है। मानो, दीन-हीन, भिखारी हो। उसका तो पेट ही भरता नहीं है। हर घड़ी ‘लेने’ पर ध्यान केन्द्रित रहता है। उसे अपनी देने की सामर्थ्य का, ज्ञान का, पद का, अवसर का किसी का भी भान नहीं रहता या नौकरी में आकर भूल जाता है। एक ‘भारतीय होनहार’ सरकारी नौकरी में जाकर हृदयहीन अंग्रेज बन जाता है। लोकतंत्र का स्तंभ बनकर देश पर राज करता है।
चीनी उत्पादों कोे हम घटिया मानते हैं। वहां संस्कृति का विकास भारत के ज्ञान से जुड़कर ही आगे बढ़ा। आबादी भारत से ज्यादा है, परन्तु उसके बहाने विकास रुका नहीं। शिक्षा, विज्ञान-तकनीक-बसावट हर क्षेत्र में विश्व के सामने एक आर्थिक चुनौती बना हुआ है- अनुशासन (भययुक्त) के कारण। भय बिन होत न प्रीत। हम सब स्वच्छंद हो गए। हमने खुद ने अपनी स्वतंत्रता छीन ली।
आत्मा ही ‘स्व’ है। आत्मा शब्द प्रवर्तक है। जिसका आत्मा शब्दोत्पत्ति में समर्थ नहीं, वह ‘पर’ है।
स्व-तंत्र में रहने वाला आत्मा ही अपना ‘स्व-भाव’ सुरक्षित रख सकता है। मन की कामना पर अपनी मर्जी स्वतंत्रता है। अपनी कामना को मन के अनुसार शब्द-प्रवर्तक बनता हुआ परतंत्र कहलाएगा। स्वतंत्रता और परतंत्रता की व्यवहार शैली में भेद है, किन्तु परिणाम दृष्टि से दोनों समान हैं। स्वतंत्रता में किसी का भी अंकुश नहीं चाहिए। व्यक्ति स्वेच्छा से मनमानी करके पशु भाव तक जा सकता है। आज तो सम्पूर्ण तंत्र ही स्वच्छंद है। मर्यादा-लज्जा-अनुशासन छोटे से छोटे ओहदे पर बैठे व्यक्ति के पास भी नहीं है। तंत्र की मर्यादा ही स्वतंत्रता की परिभाषा होती है।
यह भी पढ़ें : कानून दिव्य दृष्टि से बनें
आज देश मेरा है, लोकतंत्र भी मेरा है, फिर चारों ओर देखता हूं तो कोई भी मेरा नहीं है। प्रवासी हूं मैं? सच पूछो तो हर व्यक्ति को ऐसा ही लगता होगा। चाहे वह किसी भी पद पर बैठा हो। बाहर दहाड़ता है, भीतर से खोखला-असुरक्षित। हर दूसरा व्यक्ति उसे स्वयं से ज्यादा सुरक्षित लगता है। स्थिति तो लोकतंत्र के पायों की भी यही है। मात्रा का ही अन्तर है। तीनों का ध्यान लोक से हट गया। कार्यपालिका के नियम एक जाल के रूप में, जनता को घेरने और खुद को बचाए रखने के लिए ही बनाए जाते हैं। कोर्ट फैसले देने को बैठा है। उनको लागू करवाना उसका दायित्व ही नहीं है। विधायिका चुनाव जीतकर अपने भविष्य में खो जाती है। आज तो विधायक खुद चौथ वसूली करने लगे हैं। धमकियां देने लगे हैं। इनसे बढ़कर राक्षस भला कौन होगा!
केन्द्र और राज्य यदि अलग-अलग दलों के हैं तो कार्यशैली भी दो विभिन्न देशों की तरह हो जाती है। मानो भारत-पाकिस्तान हो। पूरे पांच साल एक-दूसरे को लेकर बयानबाजी चलती रहती है। केन्द्रीय योजनाओं की क्रियान्विति की भी यही स्थिति रहती है। सरकार बदलते ही योजनाएं बदल जाती हैं, उनके नाम बदल जाते हैं। जो बजट खर्च हो चुका वह बट्टे खाते चला जाता है। राजनीतिक दल कितना सम्मान करते हैं-एक-दूसरे का। सौहार्द दब गया फाइलों में, आज तो शत्रु की तरह लड़ते हैं। इसीलिए चुनाव भी ‘लड़ा’ जाने लगा है। लड़ाई और चयन? दादागिरी से राज करना ही नए लोकतंत्र का स्वरूप होता जा रहा है। सत्ता का केन्द्रीयकरण ही भविष्य की ओट में है।
यह भी तय है कि मुझे अपने कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा। आज भी अपने पुण्य कर्मों से ही इस परिवार और इस पद (स्थिति) में हूं। आज का कर्म ही भविष्य बनेगा। मैं रहूं, न रहूं मेरी सात पीढ़ियां भोगेंगी। मैं ही तो मेरी सन्तान बनता हूं। मैं ही अतीत था, वर्तमान भी मैं ही हूं और मैं अपने ही भविष्य को भोगूंगा।