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खेती ही उद्योगों का आधार : कर्पूर चन्द्र कुलिश जन्म शताब्दी वर्ष

यह सच है कि उद्योग ही समृद्धि के साधन हैं। यह युग भी उद्योग प्रधान है परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उद्योगों का आधार कृषि है।

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हम बरसों से भारत को कृषि प्रधान देश भले ही कहते आए हों, लेकिन औद्यौगीकरण की होड़ में खेती कहीं पीछे हो गई है। दो दिन पहले ही देशभर में पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की जयंती (२३ दिसंबर) किसान दिवस के रूप में मनाई गई। हर बार की तरह कृषि व काश्तकारों के कल्याण की बातें भी हुईं। खेती को दोयम दर्जे पर रखने तथा छोटी होती जोतों की वजह से नुकसान की तरफ ध्यान दिलाता कुलिश जी का हुक्मरानों को नसीहत देता यह आलेख आज भी प्रासंगिक है। आलेख के अंश:तीजो बरण

यह सच है कि उद्योग ही समृद्धि के साधन हैं। यह युग भी उद्योग प्रधान है परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उद्योगों का आधार कृषि है। हमें रहन-सहन के लिए प्राकृतिक पदार्थों पर ही निर्भर करना है। बासी और नकली पदार्थों पर निर्भर करने वाला जीवन क्षीण ही होता है। हम कृषि को कदापि गौण न समझें। हमें सम्पूर्ण अर्थनीति को कृषि प्रधान बनाना होगा। आज सभी पश्चिमी देशों में नैसर्गिक आहार की मांग है। हमें इस अनुकूल परिस्थिति का लाभ उठाकर कृषि पर अधिक जोर देना चाहिए और देशी फसलों की तरफ कृषि को प्रेरित करना चाहिए। हमारे नीति निर्माताओं का सर्वाधिक ध्यान आजकल बिजली पर है। यह उचित एवं आवश्यक भी है लेकिन हमें इससे अधिक महत्व कृषि को देना होगा। कृषि हमारी अर्थ नीति का आधार हो और पानी भी उसका आधार हो। बिजली उसके लिए सहायक के रूप में काम करे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि, जो देश उद्योगों के बल पर बढ़े-चढ़े हैं वे छलांग मार कर नहीं चढ़े हैं। वे कई दौरों से गुजर कर आगे बढ़े हैं। हमारे देश की जो जनशक्ति है उसके समुचित उपयोग का एकमात्र आसरा कृषि ही है। कृषि को आधार मानकर ही उसकी नींव पर उद्योगों का विकास किया जाना चाहिए। भारतीय कृषि की एक बड़ी कमजोरी छोटी- छोटी जोतें हैं और वे हर दिन छोटी होती जा रही है। उत्तराधिकार कानून के प्रावधानों के अनुसार एक खेत हर पीढ़ी में छोटा होता जाता है। कोई भी किसान उसके भरोसे अपने परिवार का पेट नहीं पाल सकता। इन जोतों को उपयोगी बनाने का कोई उद्यम नहीं हुआ। हमारे देश में कृषि के संबंध में कोई कारगर नीति नहीं है। सामान्यत: नारेबाजी को ही नीति का नाम दिया जाता है। हरित क्रांति, आधुनिक तकनीक, खाद-बिजली पर अनुदान, न्यूनतम समर्थन मूल्य आदि ऐसे ही नारे हैं। किसान को यह मालूम नहीं कि कितनी जमीन में अनाज, गन्ना, तिलहन या कपास बोना हैं। कभी कपास में मंदी आती है तो कभी गन्ने के खेत जलाए जाते हैं। अकाल, बाढ़, ओलावृष्टि जैसे मौकों पर तकाबी या ऋण वसूल न करने की घोषणा कर दी जाती है। कृषि को ही आर्थिक नीति का मूलाधार बनाया जाना चाहिए। कृषि ही उद्योगों को कच्चा माल दे सकती है।

तीजो बरण

आकर्षण करसो करम,
अन्दाता को रूप।
करसन ही खेती-कृषी,
तीजो बरण अनूप।।

'सात सैंकड़ा' से

भारत का ग्राम्य जीवन किसी औद्योगिक क्रांति में समास होने वाला नहीं है और जो गांवों में उद्योग-धंधे चल रहे हैं उनकी भी जरूरत बनी रहेगी। इन धंधों में सुधार का मतलब होगा, समूचे गांव में सुधार होना। जो लोग पीढिय़ों से एक धंधा कर रहे हैं, वे सधे हुए हैं और गांव को उपयोगी सेवा प्रदान करते हैं। इन सेवाओं का स्थान कोई दूसरा नहीं ले सकता। सामुदायिक विकास योजनाओं के माध्यम से गांवों में किए जाने वाले नियोजित परिवर्तन का विलक्षण तत्व 'सर्व ग्राह्यताÓ है। अत: सुधार और आधुनिकता के बीच प्रकट होने वाले अकल्पित विरोध के प्रति विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इसी ने दुविधा, संशय और व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया है। सामाजिक परिवर्तन के निर्धारित तत्वों में समन्वय एवं निरंतरता अपेक्षित हैं।

(कुलिश जी की यात्रा वृत्तांत पर आधारित पुस्तक
'मैं देखता चला गया' से)

हमारे शास्त्रों में शरीर को भूतग्राम कहा गया है। विभिन्न महाभूतों से बनी हुई शरीर की..पिण्ड की जो रचना है उसे ग्राम कहिए। यह ग्राम का संगठित रूप है, जो देश में बसे हुए ग्रामों में देखने में आता है। ग्राम में अपने स्वयं के उत्पादन के साधन हैं। कृषि से अन्न मिल रहा है, कपास से कपड़ा, खेती से सब्जी, तिलहन, पशुपालन से घी-दूध सब उपलब्ध है। इनके वितरण के साधन भी समस्त मौजूद हैं। पहले तो उत्पादन करने वाला घर में उपभोग करेगा, कर्जा उधारी होगा उसे चुकाएगा, लगान में भी उत्पादन का एक हिस्सा चला जाएगा। यदि ग्राम में ही खपत है तो ठीक है वरना पास-पड़ोस की मंडी में बिकने चला लाएगा।
('धाराप्रवाह' से)