मोकामा के बाहुबली दुलारचंद यादव का सियासी सफर संघर्ष और बदलाव से भरा रहा है। 1995 के चुनावों में उन्हें मात्र 105 वोट मिले, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 2010 में उनकी गिनती 598 वोटों तक पहुंच गई।
मोकामा, बिहार का एक प्रसिद्ध इलाका है, जहां वर्षों से राजनीति, बाहुबल और बंदूकें अपना इतिहास लिखते रहे हैं। इस इलाके की राजनीति में दुलारचंद यादव का नाम भी दशकों तक गूंजता रहा। उन्होंने कभी लालू यादव के करीबी के रूप में अपनी पहचान बनाई, तो कभी नीतीश कुमार के विरोध में खड़े होकर मजबूत आवाज़ भी बने। आखिरकार 2025 में गोलियों की तड़तड़ाहट के बीच उनकी कहानी खत्म हो गई।
90 के दशक में जब लालू प्रसाद यादव बिहार की राजनीति के केंद्र में थे, तभी मोकामा-बाढ़ टाल क्षेत्र में दुलारचंद यादव का रुतबा तेजी से बढ़ रहा था। उनकी घुमावदार मूंछें और कड़क आवाज़ से इलाके में उनकी पहचान बन चुकी थी। कहा जाता है कि लालू यादव के दौर में दुलारचंद का नाम प्रशासनिक हलकों में भी असरदार था। हालांकि, वे लालू के करीबी माने जाते थे, लेकिन उन्हें पार्टी से कभी टिकट नहीं मिला। जनता दल के भीतर जॉर्ज फर्नांडीस और शरद यादव जैसे नेताओं का विरोध इसकी वजह बना। दोनों राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ थे और दुलारचंद की छवि बाहुबली की थी। लालू यादव ने अपने ‘पिछड़ावाद’ के एजेंडे में उनका इस्तेमाल तो किया, लेकिन पार्टी में उन्हें जगह देने से हमेशा कतराते रहे।
1995 में दुलारचंद यादव ने पहली बार बाढ़ विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा। उनका नाम तब इलाके में चर्चित था, लेकिन जनता ने उन्हें अपना नेता नहीं माना। 40 उम्मीदवारों की भीड़ में उन्हें महज 105 वोट मिले। उस चुनाव में लालू यादव की जनता दल से विजय कृष्ण और नीतीश कुमार की समता पार्टी से भुवनेश्वर प्रसाद सिंह मैदान में थे। दुलारचंद का दबदबा स्थानीय स्तर पर था, लेकिन मतपेटी तक वो असर नहीं पहुंचा। वो चुनाव तो हार गए, लेकिन उनकी पहचान ‘गन वाले यादव नेता’ के रूप में और मजबूत हो गई।
1990 के दशक का बिहार अपराध और राजनीति के गठजोड़ के लिए बदनाम रहा। इसी दौर में दुलारचंद यादव का नाम भी कई आपराधिक मामलों में जुड़ा। कभी अपहरण, कभी रंगदारी, तो कभी ज़मीन विवाद, हर जगह उनका जिक्र होता था। लेकिन उनके इलाके के लोग उन्हें अपने हक़ की लड़ाई लड़ने वाला आदमी भी कहते थे। उनकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि बाढ़-मोकामा के टाल इलाके में कोई भी चुनाव उनके बिना नहीं होता था।
1995 में मिली हार के 15 साल बाद 2010 में दिलारचंद यादव ने जनता दल (सेक्युलर) के टिकट पर फिर बाढ़ विधानसभा से चुनाव लड़ा। इस बार उम्र 60 के पार थी, लेकिन जोश अब भी वैसा ही था। हालांकि, जनता ने उन्हें फिर से नकार दिया। इस बार वोट मिले 598, यानी पहले से थोड़ा बेहतर, पर हार फिर भी भारी थी। दो चुनाव में हुई बुरी हार के बावजूद उनकी सामाजिक पकड़ बनी रही। मोकामा, बाढ़ और टाल इलाका आज भी उन्हें “दादा” के नाम से याद करता है।
राजनीतिक करियर न चल पाने के बावजूद, उन्होंने अपनी पहचान बनाए रखी। वे हर राजनीतिक पार्टी से बराबर दूरी और बराबर निकटता बनाए रखते थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी के लिए प्रचार किया था। उस चुनाव में नीलम देवी राजद के टिकट पर चुनाव लड़ रही थी। उस वक्त उन्होंने खुले मंच से नीतीश कुमार की आलोचना की थी।
30 अक्टूबर 2025 की दोपहर, जब वे जन सुराज समर्थक के तौर पर प्रचार में शामिल थे, मोकामा के बसावनचक इलाके में दो गुटों के बीच हिंसक भिड़ंत हुई। इस झड़प में दुलारचंद यादव को गोलियों से छलनी कर दिया गया। मौके पर ही उनकी मौत हो गई। अगले दिन उनके शवयात्रा के दौरान फिर से हिंसा भड़क उठी। लोगों ने “अनंत सिंह को फांसी दो” के नारे लगाए। सूरजभान सिंह की पत्नी और राजद प्रत्याशी वीणा सिंह भी शवयात्रा में मौजूद थीं। इलाके में भारी तनाव फैल गया और प्रशासन ने पूरे मोकामा में पुलिस तैनात कर दी।