जैविक घास मिट्टी के लिए फायदेमंद होती है क्योंकि यह मिट्टी के पोषक तत्वों को बढ़ाती है, मिट्टी की उर्वरता बनाएं रखती है और पर्यावरण को सुरक्षित रखती है।
जयपुर। राजस्थान में अरावली की हरी-भरी वादियां अब सिर्फ प्राकृतिक सौंदर्य का प्रतीक ही नहीं, बल्कि पौष्टिकता और जैव विविधता का भी खजाना बनती जा रही हैं। स्थानीय किसानों की मानें तो यहां की कई प्रजातियों की जैविक घास न केवल मवेशियों के लिए उत्तम चारा साबित हो रही हैं, बल्कि मिट्टी की सेहत और पर्यावरण संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
अरावली की वादियों में उगी घासें कैल्शियम, प्रोटीन, रेशे और सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर होती हैं, जिनसे पशुओं के दूध और स्वास्थ्य की गुणवत्ता में सुधार देखा गया है। इनमें करड़, बुफेल, इंडियन राइस, धामण, भाला सहित अन्य कई प्रजाति की घास है।
बिना रासायनिक खाद के उगने वाली यह घास न केवल निशुल्क में तैयार हो रही है, बल्कि लंबे समय तक हरी बनी रहती है। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती है। अरावली की यह जैविक घास मिट्टी के कटाव को रोकने, जल भंडारण क्षमता बढ़ाने और जैव विविधता संरक्षण में अहम योगदान देती है।
यह सभी घासें बरसात में उगना शुरू हो जाती है, जिन्हें सितंबर-अक्टूबर तक काट लिया जाता है। इनकी लंबाई एक मीटर के आसपास होती है। यह घास पशुओं को हरा चारा रूप में खिलाई जाती है। वहीं इनके पक कर सूखने के बाद भी पशुओं को खिलाई जा सकती है।
यह घास न केवल पशुपालन का आधार बन सकती है बल्कि पोषण सुरक्षा, ग्रामीण आजीविका और पारिस्थितिक संतुलन को भी मजबूत करने की क्षमता रखती है। सरकार और स्थानीय संस्थाएं इन घासों को संरक्षित करने और वैज्ञानिक ढंग से प्रचारित करने में अपना योगदान दें तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तो मजबूती मिलेगी ही साथ ही पशुओं के स्वास्थ्य व दूध उत्पादन में भी बढ़ोतरी होगी।
यह घास जो बिना किसी रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों या अन्य कृत्रिम पदार्थों के उपयोग के अरावली की वादियों में उगी है। यह प्राकृतिक तरीके से उगी और इसमें कोई हानिकारक रसायन भी नहीं है। जैविक घास मिट्टी के लिए भी फायदेमंद होती है क्योंकि यह मिट्टी के पोषक तत्वों को बढ़ाती है, मिट्टी की उर्वरता बनाएं रखती है और पर्यावरण को सुरक्षित रखती है।
मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले में भू-निम्नीकरण (भूमि का क्षरण और गुणवत्ता में गिरावट) एक गंभीर समस्या थी। इस जिले में अधिकतर भूमि बंजर और सूखा-ग्रस्त थी, जिससे कृषि और जनजीवन प्रभावित हो रहा था। भू-निम्नीकरण को कम करने के लिए झाबुआ जिले में वाटरशेड प्रबंधन की पहल की गई है जिससे भूमि की गुणवत्ता में सुधार हुआ। इसके तहत चारागाह भूमि पर चारा घास लगाने, वनरोपण, रेत के टीलों को स्थिर करने तथा जैविक खेती को बढ़ावा देने जैसे उपाय अपनाए गए। इन प्रयासों से भू-क्षरण और मरुस्थलीकरण को रोका गया और भूमि की उर्वरता बढ़ाई जा रही है।