बैतूल के टेमनी गांव ने फुटबॉल के क्षेत्र में अलग पहचान बनाई है। 10 खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर तो 40 राज्य स्तर पर खेले।
गांव में खेल का मैदान नहीं, माता-पिता मजदूर। माली हालत ऐसी कि देखने वाले सोच में पड़ जाए। इसके बाद भी फटे जूतों में उबड़-खाबड़ मैदान पर बुलंद हौसलों से अभ्यास कर आदिवासी बहुल टेमनी गांव की 3 बेटियों ने नजीर बना दी। पिंकी उइके, हर्षल भलावी व खुशी परते राष्ट्रीय स्तर पर फुटबॉल में प्रदेश का मान बढ़ा रही हैं।
मप्र जूनियर टीम में चयन के बाद तीनों नागालैंड में जूनियर गर्ल्स नेशनल फुटबॉल चैंपियनशिप में मप्र का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। पिंकी व हर्षल के माता-पिता मजदूर हैं तो खुशी के माता-पिता नहीं हैं। वह नाना-नानी संग रहती है। लेकिन कुछ करने की ललक में बेटियों ने नजीर बना दी है।
सिंगरौली में इंटर-डिस्ट्रिक्ट टूर्नामेंट में टेमनी और बैतूल के 7 खिलाड़ियों शारदा उइके, सृष्टि नागले, अदिति सोनी, अनन्या गुजनारे ने हिस्सा लिया। इनमें ज्यादातर के माता-पिता मजदूर हैं। टूर्नामेंट में उनके प्रदर्शन को देखते हुए पिंकी, हर्षल और खुशी को मप्र जूनियर टीम में चुना गया। खुशी ने यहां 10 गोल दागकर बेस्ट प्लेयर का खिताब जीता था। इस प्रदर्शन के बाद उसका चयन नेशनल के लिए भी हुआ। वे झारखंड में मप्र का प्रतिनिधित्व करेंगी।
बैतूल के टेमनी गांव ने फुटबॉल के क्षेत्र में अलग पहचान बनाई है। 10 खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर तो 40 राज्य स्तर पर खेले। 100 से ज्यादा खिलाड़ी संभाग स्तर पर खेल चुके। सीनियर फुटबॉल में निकिता उइके ने नेशनल कैंप तक पहुंचकर मप्र का नाम रोशन किया। सरस्वती भलावी सब जूनियर टीम में चुनी गईं। सुब्रतो कप 2024 में 11 बेटियां स्टेट टीम से फाइनल तक पहुंचीं।
टेमनी निवासी कोच कृष्णकांत उइके बताया, तीनों खिलाड़ियों ने तीन साल की कड़ी मेहनत से यह मुकाम हासिल किया। पिंकी लेफ्ट बैक, हर्षल राइट विंग और खुशी स्ट्राइकर के रूप में खेलती हैं। टीम हाल ही में हिमाचल के साथ मैच खेल चुकी है, आगे महाराष्ट्रव मिजोरम से मुकाबले होंगे।
-टेमनी आदिवासी बहुल गांव, यहां 350 घर और आबादी करीब 2000
-इनमें 200 घर आदिवासियों के
-गांव में बेहतर खेल मैदान नहीं, ज्यादा खिलाड़ियों के माता-पिता का रोजगार मजदूरी।
-गांव के कृष्णकांत उइके खुद राष्ट्रीय स्तर पर फुटबॉल खेल चुके। 2020 से बच्चों को नि:शुल्क फुटबाल सिखा रहे।
-पहले कुछ बच्चे ही फुटबॉल खेलने आते थे। धीरे-धीरे आदिवासी बेटियों की रुचि बढ़ी और अब गांव की अधिकांश बेटियां मैदान में हैं।