मंटो ने मिर्जा गालिब फिल्म की कहानी दिल्ली में लिखी थी। वह उन पर शोध कर चुके थे। जिस दिन मंटो की मौत हुई, उस दिन मिर्जा गालिब फिल्म देश में दिखाई जा रही थी।
मिर्जा गालिब की आज 27 दिसंबर को जयंती है। मंटो ने मिर्जा गालिब फिल्म की कहानी दिल्ली में लिखी थी। वे तब यहां पर आकाशवाणी में काम करते थे। उनके साथी थे उर्दू के मशहूर लेखक किशन चंदर। यह 1940 के दशक के अंतिम सालों की बातें हैं। मंटो मोरी गेट में रहते थे और किशन चंदर तीस हजारी के पास भार्गव लेन में। जिस दिन मंटो की मौत हुई तब मिर्जा गालिब फिल्म देश में दिखाई जा रही थी। मंटो की मौत पर किशन चंदर ने मंटो और मिर्जा गालिब फिल्म पर बहुत भावुक होकर लिखा था कि मंटो ने कैसे फिल्म कहानी लिखी थी। इस स्टोरी में गालिब, मंटो और मिर्जा गालिब फिल्म है।
दिल्ली के मोरी गेट और कश्मीरी गेट में आज भी रोज की तरह हलचल है। सड़कों पर ट्रैफिक आ जा रहा है। जाहिर है, इस तरह की स्थिति 1940 के दशक के अंतिम सालों में नहीं रहा करती होगी। तब मशहूर उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो मोरी गेट में रहते थे। उन दिनों वे ऑल इंडिया रेडियो में काम करते हुए मिर्जा गालिब पर शोध कर रहे थे।
बेशक, यह नामुमकिन है कि मंटो दिल्ली-6 में मिर्जा ग़ालिब के घर और बस्ती निजामुद्दीन में उनकी कब्र में हाजिरी देने ना जाते हों। आज आप गालिब की जयंती पर बस्ती निजामुद्दीन में उनकी मज़ार की ओर बढ़ते हुए मंटो और उन सभी के बारे में पल भर के सोचते हैं, जो मिर्जा ग़ालिब की कब्र पर आते रहे हैं। आप ग़ालिब अकादमी के आगे से गुजरते हैं। वहां पर उनकी साल गिरह पर उनकी शायरी पर कई विद्वान गुफ्तुगू कर रहे हैं। यहां से गुजरते हुए आपके कानों में "ये न थी हमारी किस्मत के विसाल-ए-यार होता…" या "हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले…" जैसे गालिब के कालजयी शेर सुनाई पड़ते हैं।
मंटो दिल्ली में लगभग दो साल रहने के बाद अपने पसंदीदा शहर, मुंबई ( तब बॉम्बे) लौट गए थे। यह 1948 की बात है। 'मिर्जा ग़ालिब' की कहानी लिखते समय, वे जरूर सोचते होंगे कि अगर गालिब साहब उनके सामने होते तो वे उनसे क्या सवाल करते। उनके सवालों के क्या जवाब मिलते। सोहराब मोदी ने मंटो की कहानी पर ‘मिर्जा गालिब’ फिल्म का निर्माण किया। उसे जबरदस्त सफलता मिली थी। देश के विभाजन के बाद, मंटो पाकिस्तान चले गए। उनका 18 जनवरी 1955 को लाहौर में निधन हो गया। इत्तेफाक देखिए कि तब देशभर में ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ फिल्म चल रही थी।
उर्दू के मशहूर लेखक किशन चंदर ने मंटो की मौत पर लिखा था-"जिस दिन मंटो से मेरी पहली मुलाकात हुई, उस रोज मैं दिल्ली में था। जिस रोज़ वह मरा है,उस रोज़ भी मैं दिल्ली में मौजूद हूं। उसी घर में हूं, जिसमें चौदह साल पहले वह मेरे साथ पंद्रह दिन के लिए रहा था। घर के बाहर वही बिजली का खंभा है, जिसके नीचे हम पहली बार मिले थे। वह ग़रीब साहित्यकार था। वह मंत्री नहीं था कि कहीं झंडा उसके लिए झुकता। आज दिल्ली में मिर्जा ग़ालिब पिक्चर चल रही है। इसकी कहानी इसी दिल्ली में, मोरी गेट में बैठ कर मंटो ने लिखी थी।" किशन चंदर भी मंटो के साथ आल इंडिया रेडियो में काम करते थे। किशन चंदर तीस हजारी के पास भार्गव लेन में रहा करते थे। दिल्ली में मंटो ने रेडियो नाटक लिखे। कुल मिलाकर, मंटो की दिल्ली वाली यादें संघर्ष की हैं, और चंदर ने उन्हें अमर बनाया।
‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ रीलिज हुई तो उसकी स्पेशल स्क्रीनिंग राष्ट्रपति भवन में भी हुई। राष्ट्रपति ड़ॉ राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी इसे देखा और पसंद किया। पंडित नेहरू ने सोहराब मोदी से कहा, "आपने ग़ालिब को जीवित कर दिया है।" इसमें भारत भूषण ने गालिब की भूमिका निभाई। मिर्जा गालिब ने अखिल भारतीय सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक और हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रपति का रजत पदक जीता। बेशक, मिर्जा गालिब फिल्म ने मंटो को भी जिंदा कर दिया था।