Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने चेक बाउंस मामले में पटना हाईकोर्ट का फैसला रद्द करते हुए कहा कि हाईकोर्ट ट्रायल से पहले तथ्यों की गहन जांच कर शिकायत खारिज नहीं कर सकता। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि NI Act की धारा 139 के तहत शिकायतकर्ता के पक्ष में कानूनी अनुमान होता है, जिसे ट्रायल के दौरान ही चुनौती दी जा सकती है।
Supreme Court: देश की सर्वोच्च अदालत ने 19 दिसंबर को एक चेक बाउंस मामले की सुनवाई में पटना हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हाईकोर्ट को चेक बाउंस से जुड़े मामलों में ट्रायल से पहले तथ्यों की गहन जांच करके शिकायत रद्द नहीं करनी चाहिए। खासकर तब, जब नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 139 के तहत शिकायतकर्ता के पक्ष में कानूनी अनुमान मौजूद हो। बता दें कि यह टिप्पणी जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने की। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें हाईकोर्ट ने CrPC की धारा 482 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए चेक बाउंस की आपराधिक शिकायत को प्रारंभिक स्तर पर ही खारिज कर दिया था।
शुक्रवार को सुनवाई के दौरान इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने प्री-ट्रायल स्टेज पर यह जांच करके गलती की कि संबंधित चेक वास्तव में किसी कर्ज या देनदारी को चुकाने के लिए जारी किया गया था या नहीं। कोर्ट के अनुसार, ऐसी जांच का सही मंच ट्रायल कोर्ट है, न कि हाईकोर्ट में धारा 482 के तहत कार्यवाही को रद्द करने का चरण। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 139 के तहत यह माना जाता है कि चेक धारक को दिया गया चेक किसी कर्ज या अन्य देनदारी के भुगतान के लिए ही दिया गया है। यह एक कानूनी अनुमान है, जिसे आरोपी पक्ष ट्रायल के दौरान साक्ष्यों के माध्यम से चुनौती दे सकता है। इस अनुमान को नजरअंदाज कर प्रारंभिक स्तर पर केस को खत्म करना कानून के स्थापित सिद्धांतों के खिलाफ है।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि पटना हाईकोर्ट कानून की स्थापित स्थिति को लागू करने में विफल रहा है। जब किसी शिकायत से पहली नज़र में मामला बनता है तो विवादित तथ्यों की विस्तृत जांच करके मामला रद्द करना गलत है, जिसके लिए ट्रायल में फैसला ज़रूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी दोहराया कि जब किसी आपराधिक शिकायत को रद्द करने की मांग की जाती है, तो अदालत को केवल यह देखना चाहिए कि शिकायत में लगाए गए आरोपों से पहली नजर में कोई अपराध बनता है या नहीं। यदि शिकायत और उसके समर्थन में प्रस्तुत दस्तावेजों से यह प्रतीत होता है कि आरोपी के खिलाफ कार्यवाही आगे बढ़ाई जा सकती है, तो कोर्ट को केस रद्द नहीं करना चाहिए।
जस्टिस मनोज मिश्रा ने अपने फैसले में कहा कि हाईकोर्ट ने CrPC की धारा 482 के तहत यह जांच करके गलती की कि चेक किसी कर्ज या देनदारी को चुकाने के लिए दिया गया था या नहीं। कोर्ट के अनुसार, इस स्तर पर ऐसी जांच की कोई जरूरत नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 139 के तहत कानून यह मानकर चलता है कि चेक पाने वाले को यह चेक किसी कर्ज या बकाया राशि के भुगतान के लिए ही दिया गया है। अगर आरोपी इस बात से असहमत है, तो वह ट्रायल के दौरान सबूत पेश करके इस कानूनी अनुमान को चुनौती दे सकता है। कोर्ट ने साफ कहा कि यह तय करना कि चेक वास्तव में कर्ज चुकाने के लिए दिया गया था या नहीं, ट्रायल कोर्ट का काम है। यह फैसला ट्रायल के समय या फिर ट्रायल पूरा होने के बाद अपील या रिवीजन कोर्ट में किया जा सकता है। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपील को मंजूर कर लिया और चेक बाउंस से जुड़ी आपराधिक शिकायत को फिर से मजिस्ट्रेट की अदालत में बहाल कर दिया। साथ ही निर्देश दिया गया कि मामले में अब कानून के मुताबिक आगे की कार्रवाई की जाए।