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विश्व हिंदू परिषद ने जन्म लेते ही किया आंदोलन का शंखनाद…सरकार की नाक में दम किया

कांग्रेस की सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लिखकर दे दिया कि उसकी इस विवाद में कोई रुचि नहीं है। वही कांग्रेस श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में अडंगे डालती रही, और ढांचा गिरने को राष्ट्रीय शर्म कहा...। आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्यों कि पहले भी प्रथम प्रधानमंत्री कह चुके थे कि मुझे सोमनाथ के पुनर्निमाण कराना पसंद नहीं है। यह हिंदू पुनरुत्थान है...।

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श्रीराम जन्म भूमि आंदोलन को लेकर 1962 में यूपी की कांग्रेस सरकार ने हाईकोर्ट में लिखकर दे दिया। उसकी इस मामले में कोई रुचि नहीं है।

Ram Mandir Katha: श्रीराम जन्मभूमि को लेकर अदालती प्रक्रिया जारी थी। मामला फैजाबाद जिला कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट के बीच दौड़ रहा था। लेकिन हम यहां थोड़ा ठहरते हैं, और चलते हैं देश की आजादी के समय के हालात पर जब रियासतों का विलय भारत संघ में हो रहा था। गुजरात के जूनागढ़ रियासत के विलय के लिए प्रथम गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल जूनागढ़ गए हुए थे। उन्होंने घोषणा कर दिया कि-

‘भारत सरकार ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण और मूर्तियों की पुनर्स्थापना का निश्चय किया है। ‘

इस स्थान के बारे में कर्नल जेम्स टॉड ने पश्चिमी भारत की यात्रा में पेज 349 पर सोमनाथ की ड्योढी से लिखा है कि ... मंदिर को मस्जिद में और सूर्यदेव की पीठिका को मुल्ला के धर्मासन में परिवर्तित कर दिया था, जहां से वह अब भी रक्त पात की दुर्गन्ध फैलाता अपने विजय गीत ला इल्लाह मोहम्मद उर रसूल अल्लाह की बाग लगाता था...।

पंडित जवाहर लाल नेहरु सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण के खिलाफ थे। उन्होंने मंत्रीमंडल की बैठक बुलाई और बैठक के बाद जय सोमनाथ पुस्तक के लेखक कन्हैया लाल मणिक लाल मुंशी से कहा कि- मुझे सोमनाथ मंदिर का पुनर्निमाण कराना पसंद नहीं है। यह हिंदू पुनरुत्थान है। (भारतीय विद्या भवन की पत्रिका भवंस जर्नल के एक जनवरी 1967 के अंक में प्रकाशित मुंशी के पत्र से) इसके बावजूद सरदार पटेल अडिग थे कि सोमनाथ का पुनर्निमाण किया जाएगा।


इस कार्य में उनको प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद का सहयोग मिला और सोमनाथ मंदिर बनकर तैयार हो गया। सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन का न्यौता पंडित नेहरु को दिया गया लेकिन वह जाने का तैयार नहीं हुए तो प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ पहुंचे। लेकिन उनकी यात्रा और मंदिर के उद्घाटन को सरकारी माध्यमों से प्रसारण पर रोक लगा दिया गया। श्रीराम जन्म भूमि आंदोलन को लेकर 1962 में यूपी की कांग्रेस सरकार ने हाईकोर्ट में लिखकर दे दिया कि उसकी इस मामले में कोई रुचि नहीं है।


विश्व हिंदू परिषद की स्थापना

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर और यूएनआई के पत्रकार शिवराम शंकर आप्टे ने विश्व स्तर पर हिंदुओं को एकजुट करने के लिए संस्था बनाने का विचार किया। तब श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति का सवाल इनके सामने नहीं था। ना ही इन्होंने ऐसा सोचा था कि संगठन आगे चलकर अयोध्या, काशी, मथुरा के लिए आंदोलन करेगी।


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संगठन की स्थापना का जिम्मा दादा साहब आप्टे को दिया गया जो कि 9 माह तक पूरे देश में भ्रमण करके विभिन्न मत, पंथ, सम्प्रदाय के साधु-संतों को इस विषय में अवगत करा रहे थे। यहां तक कि राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सभी राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, केंद्रीय मंत्रियों, विश्वविद्यालय के कुलपतियों, उद्योगपतियों आदि को सूचित कर रहे थे और इस बारे में उनका मंतव्य भी जान रहे थे।


‘आपको हिंदू शब्द से परहेज है तो मत बनाएं संगठन’

दादा साहब आप्टे की यात्रा में महत्वपूर्ण पड़ाव राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल डॉ सम्पूर्णानंद से रही। बातचीत के क्रम में डॉ सम्पूर्णानंद ने स्पष्ट कहा कि नाम में हिंदू जुड़ा होना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट कहा कि अगर आपको हिंदू शब्द से परहेज है, तो नई संस्था का निर्माण मत कीजिए।

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मद्रास के तत्कालीन राज्यपाल और मैसूर के पूर्व महाराज जयचामराज वाडियार ने नई बनने वाली संस्था का अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया। विश्व हिंदू परिषद का पहला तदर्थ सम्मेलन बम्बई में कृष्ण जन्माष्टमी 23-30 अगस्त 1964 को पवई स्थित संदीपनी साधनालय में हुआ।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का अवसर था, जब विश्व हिंदू परिषद की स्थापना कर दी गई। इस अवसर पर कन्हैया लाल मणिक लाल मुंशी, संत तुकड़ो जी, माधवराव सदाशिव गोलवलकर, मास्टर तारा सिंह जैसे विशिष्ट लोग मौजूद रहे। आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक माधव राव सदाशिव गोलवलकर चाहते थे कि विश्व हिंदू परिषद का प्रतीक चिंह वट वृक्ष बनाया जाए। ताकि जितने मत, पंथ, सम्प्रदाय है सभी उसकी शाखाओं से प्रतिबिंबित हो और एक साथ जुड़े। इस सम्मेलन में हिंदू शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई-

‘वे सभी हिंदू हैं जो भारत में उद्भूत नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन पद्धति के शाश्वत सिद्धांतों का आदर करते हैं, उन पर श्रद्धा रखते हैं और उनका अनुसरण करते हैं।’


प्रयाग का महाकुंभ और संतों का जुटान

विश्व हिंदू परिषद की स्थापना के दो साल बाद प्रयाग में महाकुंभ का अवसर आया। इस अवसर पर प्रथम हिंदू सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसमें चारों शंकराचार्य, नेपाल नरेश, दलाई लामा, सिक्खों के नेता, जैन मुनि सभी एक मंच पर बैठे। हांलाकि कुछ समय बाद ही गोलवलकर का निधन और देश में आपत काल लगा जिससे विश्व हिंदू परिषद का कार्य भी प्रभावित हुआ।

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दूसरे सम्मेलन में दलाई लामा आए

आपात काल की काली छाया से निकलने और अपने संस्थापकों में से एक आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर के निधन के बाद विश्व हिंदू परिषद ने अपना दूसरा सम्मेलन आयोजित किया। प्रयाग में हुए दूसरे सम्मेलन का उद्घघाटन दलाई लामा ने किया और इसमे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीसरे सरसंघचालक बाला साहब देवरस मौजूद रहे। इस सम्मेलन में करीब एक लाखा लोगों ने हिस्सा लिया। देश भर में संगठन अपना काम करने लगा और देश के साथ ही विदेशों में भी हिंदुओं को एकजुट करने के लिए विहिप ने काम शुरू कर दिया।


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