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सावधान! जेई बन सकता है जी का जंजाल

सुअर से दूरी मच्छर से बचाव ही है उपाय

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Ashish Kumar Shukla

Jan 30, 2016

आजमगढ़. जैपनीज इंसेफेलाइटिस जानलेवा बीमारी है। इसकी चपेट में आने पर तीस से चालीस प्रतिशत मरीजों को जान गंवानी पड़ जाती है। जो बच जाते हैं उनमें में भी 25 प्रतिशत तक लोग विकलांगता के शिकार हो जाते हैं। वैसे यह बीमारी कछार वाले क्षेत्रों में अधिक होती है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से आजमगढ़ में भी इसका प्रभाव देखने को मिल रहा है। वर्तमान वर्ष में भी कई लोगों में यह लक्षण मिल चुका है। ऐसी परिस्थिति में इस बीमारी के प्रसार से इनकार नहीं किया जा सकता। चिकित्सकों का मानना है कि सावधानी बरतकर इस बीमारी से बचा जा सकता है।

क्या है जेई
जिला महिला अस्पताल में तैनात डॉ. विनय कुमार सिंह यादव बताते हैं कि जैपनीज इंसेफेलाइटिस क्यूलिसिन मच्छर के काटने से होने वाला बुखार है। इसकी तीन प्रजातियां क्यूलिसिन विस्नोई, जेलीडिस व ट्राइटेनियो रिण्टस है। यह वायरल डिजीज होता है। मच्छर के काटने पर ग्रुप डी अर्बो वायरस या फ्लेरी वायरस शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। वैसे ये मच्छर मनुष्य को पसन्द नहीं करते इसलिए इन्हें एक्सीडेण्टल होस्ट माना जाता है। मच्छर काटने के बाद भी जरूरी नहीं कि व्यक्ति जेई का शिकार हो जाये। परीक्षण में यह पाया गया है कि पांच सौ से एक हजार लोगों को अगर मच्छर काटता है तो उसमें से एकाध लोग ही जेई के शिकार होते हैं।

कैसे फैलती है बीमारी
क्यूलिसिन मच्छर की पहली पसन्द सुअर व आर्डिड बर्ड है। यह मच्छर इन्हीं को अपना शिकार बनाते हैं। खास बात तो यह है कि इन मच्छरों का प्रजनन साफ पानी में होता है। वह भी खासतौर पर धान के खेत में लगे पानी में। इसलिए इस बीमारी का प्रभाव कछार वाले क्षेत्रों में सबसे अधिक होता है। वायरस संक्रमित सुअर के ब्लड व मच्छर के लार ग्रन्थ में पाये जाते हैं। जब मच्छर किसी व्यक्ति को काटता है तो वायरस शरीर में प्रवेश कर जाता है।


जेई के हैं तीन स्टेज
जेई के तीन स्टेज होते हैं। प्रथम स्टेज को प्रोडोमल कहते हैं। इस अवस्था में मरीज को तेज बुखार आता है। पेट व सिर में तेज दर्द होता है। यह स्थिति एक से छह दिन तक रहती है। दूसरे स्टेज को एक्यूट इंसेफेलिटिककहते हैं। इसमें मरीज के शरीर का तापमान 104 डिग्री से अधिक हो जाता है। गर्दन अकड़ जाती है और मस्तिष्क में सूजन के लक्षण मिलने लगते हैं। इस स्थिति में मौत की संभावना अधिक होती है। तीसरे स्टेज को लेट स्टेज एण्ड टैक्विली कहते हैं। यदि मरीज इस स्टेज में पहुंचने के बाद बच भी जाये तो वह विकलांग हो जाता है।

जेई का होता है टीकाकरण
जेई से बचाव के लिए वर्ष 2007-08 में सभी बच्चों को जेई का टीका लगवाया गया था। इसके लिए बाकायदा जिले में अभियान चला था। सीएमओ बताते हैं कि वर्तमान में इसे नियमित टीकाकरण में शामिल कर दिया गया है। दो वर्ष तक के सभी बच्चों को जेई का टीका लगवाया जा रहा है।

1955 में मिला पहला रोगी
जेई का मरीज सर्व प्रथम 1955 में तमिलनाडु में पाया गया। वर्तमान में इसका प्रकोप पूर्वी उत्तर प्रदेश, असम, आन्ध्रप्रदेश, बिहार, गोवा, कर्नाटक, मणिपुर, मध्यप्रदेश, पाण्डिचेरी, वेस्ट बंगाल आदि प्रदेशों में देखने को मिल रहा है। पूर्वी उत्तरप्रदेश में गोरखपुर में इसका प्रकोप सबसे अधिक देखने को मिलता है। वर्तमान वर्ष में इस जिले में एक मरीज की पुष्टि हो चुकी है।

कैसे करें बचाव
ज्यदि बुखार हो और गर्दन अकडऩे लगे तो तत्काल चिकित्सकीय सलाह लेनी चाहिए।
ज्मच्छर से बचाव और आवासीय क्षेत्र के आसपास पानी एकत्र न होने दें।
ज्जलजमाव वाले स्थान पर मिट्टी तेल अथवा जला हुआ मोबिल डालें।
ज्सुअर बाड़े को आवासीय क्षेत्र के आसपास न बनायें।
ज्योजना का लाभ उठायें और हर बच्चे को टीका लगवायें।

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