
आस्था और श्रद्धा के बगैर जीवन का कोई मोल नहीं-आचार्य देवेन्द्र सागर
बेंगलूरु. आचार्य देवेंद्रसागर सूरी ने जयनगर के राजस्थान जैन संघ में धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए कहा आस्था और श्रद्धा के बगैर जीवन का कोई मोल नहीं है। श्रद्धा किसी दुकान या बाजार में मिलने वाली वस्तु नहीं, बल्कि यह हमारे मन में होती है। इसे कहीं खोजने की जरूरत नहीं है। श्रद्धा और आस्था एक है। इसे मानने वाले अलग हो सकते हैं। श्रद्धा मनुष्य को शक्ति देती है, उसके जीवन को सार्थक बनाती है। जो काम श्रद्धा से नहीं किया जाता है। वह न इस दुनिया के काम आता है और न दूसरी दुनिया के। श्रद्धा हमारे जीवन की बाहरी रेखा है। आचार्य के अनुसार सद्विचार, सद्ज्ञान सिर्फ श्रद्धा के माध्यम से ही मिलते हैं। श्रद्धा ही विवेक की आंखें खोलती है। ऐसी दृष्टि वाले को पथ-चिंतन का बोध होता है। आत्मज्ञान का दिव्य अनुदान मिलता है। अज्ञान का पर्दा हटने पर न दोष रहते हैं, न दुर्गुण और न ही शोक रहता है और न संताप। जिसने आत्म कल्याण में सफलता पाई वही दूसरों का कल्याण करने में समर्थ होता है। श्रद्धा का प्रभाव सुविकसित व्यक्तित्व में ही परिलक्षित होता है। वह प्रतिभा के रूप में अथवा गरिमा के रूप में प्रकट होता है। श्रद्धा अपने आप में परम सत्ता का प्रत्यक्ष अनुदान है, जिस व्यक्ति ने इसे अर्जित कर लिया, उसने जीवन की सर्र्वागीण सफलता प्राप्त कर ली। उन्होंने श्रद्धा रहित जीवन किसी आदर्श को महत्व नहीं देता। परमार्थ की ओर भी कदम नहीं बढ़ाता। ऐसे में वह किसी की परवाह क्यों करे और अपनी विलासिता, लिप्सा, लालसा पर अंकुश क्यों लगाए। स्वेच्छाचारिता बरतने का अवसर क्यों खोए। बुद्धि का यही निर्णय होता है कि जिसमें स्वार्थ सधता हो वही किया जाए। यह श्रद्धा ही है, जो मानव को विराट के साथ और आदर्शो को मानवीय गरिमा के साथ जोड़ती है। जिसने श्रद्धा को जिस रूप में अपनाया वह उसी गति से उत्कृष्टता की दिशा में चल पडऩे को तत्पर होगा। श्रद्धा और अंधश्रद्धा में अंतर होता है। अंधश्रद्धा पर अविवेक छाया रहता है। परंपरा का निर्वाह ही सब कुछ लगता है और इस स्थिति में उचित-अनुचित के विश्लेषण का समय नहीं रहता। अंधश्रद्धा के सहारे धूर्र्तो ने मूर्खों को अपने चंगुल में फंसाया है।
Published on:
08 Aug 2021 09:12 am
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