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कर्नाटक का रण: 38 साल से सत्ता में नहीं लौटी है सत्तारुढ़ पार्टी

तीनों ही दलों के लिए जीत-हार के अलग-अलग मायने

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कर्नाटक के सीएम बसवराज बोम्मई



बेंगलूरु. राज्य में पिछले 38 साल से सत्तारुढ़ पार्टी चुनाव के बाद सत्ता में नहीं लौटी है। 1985 के बाद से जनता ने सत्ता में रहने वाले दल को जनादेश नहीं दिया। सत्तारुढ़ भाजपा इस परंपरा को तोड़कर सत्ता में बरकरार रहने की उम्मीद कर रही है जबकि कांग्रेस राज्य की सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है। तीनाें ही दलों- भाजपा, कांग्रेस और जद-एस के लिए जीत-हार के अलग-अलग राजनीतिक मायने हैं। भाजपा और कांग्रेस के लिए राष्ट्रीय स्तर पर परिणाम मायने रखते हैं तो जद-एस के लिए यह राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई है।

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा दक्षिण के अपने सियासी द्वार के किले को बचाए रखना चाहती है, जबकि कांग्रेस दक्षिण फिर से सत्ता हासिल कर आम चुनाव से पहले राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत वापसी की उम्मीद कर रही है। भाजपा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे पर भरोसा है तो कांग्रेस को अपनी चुनाव गारंटियों पर। इस बार भाजपा ने सभी 224, कांग्रेस ने 223 और जद-एस ने 209 सीटों पर चुनाव लड़ा है।

यदि भाजपा सत्ता में लौटती है तो 1985 से राज्य में किसी भी राजनीतिक दल के सत्ता में नहीं लौटने की परंपरा टूटेगी। 1985 में तत्कालीन जनता पार्टी ने रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में लगातार दूसरी बार सरकार बनाई थी। भाजपा के लिए कर्नाटक की जीत दक्षिण के अन्य राज्यों के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर महत्व रखती है। कर्नाटक हारने पर भाजपा की मुश्किलें राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ने के साथ ही विपक्षी गोलबंदी को भी नई ताकत मिलेगी। यदि भाजपा कर्नाटक की सत्ता बरकरार रखने में सफल रहती है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे के साथ ही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की रणनीति पर मुहर लगेगी।कांग्रेस के लिए अहम लड़ाई

दूसरी ओर कांग्रेस की जीत पार्टी के गिरते मनोबल को बढ़ावा देगी। गृह राज्य में जीत से कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के नेतृत्व को मजबूती मिलेगी। मुख्यमंत्री पद के दो दावेदारों प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरामय्या के बीच आपसी खींचतान के बीच भी पार्टी स्तर पर एकजुटता संगठन की शक्ति को साबित करेगी। कांग्रेस की जीत स्थानीय मुद्दों पर आधारित प्रचार रणनीति की कामयाबी को साबित करेगी। कांग्रेस की हार अगले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा विरोधी गठबंधन के नेतृत्व के दावे को कमजोर कर देगी।

जद-एस पर निगाहेंविश्लेषकों का कहना है कि त्रिशंकु सदन की स्थिति में जद-एस राजनीतिक लाभ का फायदा उठाने के लिए कई विकल्पों पर विचार करेगा। यह देखना होगा कि क्या 2004 और 2018 की तरह जद-एस किंगमेकर या किंग के तौर पर उभरेगी।

खंडित जनादेश, अस्थिर सरकार

राज्य विधानसभा चुनाव में जब भी खंडित जनादेश आया, बनने वाली सरकार अस्थिर रही। हालांकि, इस बार सभी दल स्पष्ट जनादेश की उम्मीद जता रहे हैं। पिछले दो दशकों के दौरान गठबंधन के साथ सत्ता में आई एन धरम सिंह, एचडी कुमारस्वामी और बीएस येडियूरप्पा की सरकार कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। 2004 में पांच साल तक सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस बहुमत के साथ वापसी नहीं कर सकी और जद-एस के समर्थन से धरम सिंह की सरकार बनी मगर कुमारस्वामी के नेतृत्व में विधायकों के बगावत के कारण सरकार गिर गई। कुमारस्वामी बाद में भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बन गए और येडियूरप्पा को उपमुख्यमंत्री का पद मिला। पहली बार भाजपा को सत्ता मिली थी मगर 20 महीने बाद कुमारस्वामी ने भाजपा को सत्ता नहीं सौंपी। फिर एक सप्ताह के लिए येडियूरप्पा मुख्यमंत्री रहे मगर सरकार बहुमत साबित नहीं कर पाए। इसके बाद 2008 में हुए चुनाव में भाजपा पहली बार अपने बल पर सत्ता में आई लेकिन अगले चुनाव में येडियूरप्पा के पार्टी छोड़ने और अन्य कारणों से उसे सत्ता गंवानी पड़ी। इसके बाद 2013 में सिद्धरामय्या के नेतृत्व में कांग्रेस की पूर्ण बहुमत सरकार बनी मगर 2018 में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। 2018 में खंडित जनादेश के कारण तीन बार सरकार बनी।स्पष्ट जनादेश की उम्मीद: सिरोया

भाजपा के सांसद लहर सिंह सिरोया ने कहा कि इस बार राज्य में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बनेगी। सिरोया ने खंडित जनादेश की संभावनाओं को खारिज करते हुए कहा कि राज्य की जनता जानती है कि त्रिशंकु विधानसभा होने पर बनने वाली सरकार स्थिर नहीं होती और इससे राज्य के विकास पर असर पड़ता है।