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अंग्रेजी और हिंदी के दौर में, इन राजस्थानी चेहरों ने देसी बोली के दम पर बनाई अपनी पहचान

अंग्रेजी और हिन्दी बोलने के दौर में देसी बोली का बोलबाला होने लगा है। देसी अंदाज को इतना पसंद किया जाने लगा है कि लोग अब इसके बूते छा ही नहीं रहे हैैं बल्कि देश-विदेश में अपनी छाप छोड़ रहे हैं।  

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बाड़मेर। अंग्रेजी और हिन्दी बोलने के दौर में देसी बोली का बोलबाला होने लगा है। देसी अंदाज को इतना पसंद किया जाने लगा है कि लोग अब इसके बूते छा ही नहीं रहे हैैं बल्कि देश-विदेश में अपनी छाप छोड़ रहे हैं। देसी बोली के चलते ही लोग पद और पुरस्कार तक पहुंच गए हैैं।

26 साल के रविन्द्रसिंह भाटी शिव विधायक हैं। जोधपुर यूनिवर्सिटी की राजनीति में पांच साल पहले आए तो वे मारवाड़ी बोलने लगे। रविन्द्र ने इस भाषा को नहीं छोड़ा। देखते ही देखते वे देशभर में अपनी बोली की वजह से यूथ आइकॉन बन गए। 2023 में शिव से निर्दलीय चुनाव लड़ा और सबसे कम उम्र के विधायक बने। रविन्द्र ने विधानसभा में मारवाड़ी मे शपथ ली, हालांकि राजस्थानी भाषा को मान्यता नहीं होने से इसे मान्य नहीं माना गया। रविन्द्र के मारवाड़ी के डॉयलॉग लांठा हां, मोटियार हां और कई वाक्य अब युवाओं के लिए पसंदीदा हो गए हैं।

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ठेट बाड़मेर के गांव में रहने वाली सामान्य परिवार की महिला। पहनावा भी घाघरा- ओढ़ना। मारवाड़ी बोलना और मारवाड़ी भजन-गीत गाना। कशीदाकारी सीखी और ग्रामीण महिलाओं को इससे जोड़ा। रूमादेवी को इसी बोली ने उन्हें खास बनाया। अब वह नारीशक्ति पुरस्कार प्राप्त कर देशभर में महिला सशक्तीकरण का उदाहरण बनी है।


जैसलमेर के गांव बहिया निवासी कलाकार अनवर खां ने अपनी बोली में गानों को आवाज दी। मारवाड़ी गीतों, हरजस, सूफी भजन और लोकगीतों को गाते-गाते अनवर ने 75 से अधिक देशों की यात्रा कर ली। विदेशियों केे बीच जब अनवर केसरिया बालम और लाल मेरी पथ रखियो बला झूले लालण या फिर पूरी अजोध्या राजा दशरथ घर रामचंद्र अवतार लियो गाते हैं तो लोग झूम उठते हैं। अनवर को इसी बोली ने पद्मश्री पुरस्कार प्रदान करवाया।

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