अब घरों में नहीं, होटल में होती शादी करीब दस साल पहले शादी से करीब पन्द्रह दिन पहले घरों में सभासनी जो हर नेक को करने वाली बुआ या बहन आ जाती थी और पीली चिठ्ठी या हल्दी गणेशजी को चढ़ाकर मांगलिक कार्यक्रम शुरू हो जाते थे। धीरे-धीरे अन्य मेहमान से घर भरने लगता था और रोज मांगलिक गीतों से घर का माहौल शादी जैसे लगने लगता था। शादी होने से एक सप्ताह पहले परिजनों या बहन बेटियों की ओर से बाण की बिंदौली लेने की परंपरा थी। शादी के दिन आने तक यह चलता रहता था। देशी अंदाज में रोजाना नाचगान भी चलता रहता था।
अधिकांश परिवार शादियां अपने घरों से करते थे, लेकिन अब कुछ सालों से लोगों के पास सीमित समय व अपने सामाजिक सम्बन्धों को समेटेते हुए विवाह जैसे पवित्र संस्कारों की भी औपचारिकता करने लग गए हैं। बेटी पक्ष के लोग भी अपने चुनिंदा लोगों के साथ वरपक्ष के यहां आ जाते हैं और शादी के सभी संस्कार लग्न, हल्दी, मायरा आदि रिवाज एक ही दिन में पूरे कर फ्री हो जाते हैं। गांवों व शादी के रीति-रिवाज के अनुसार वर पक्ष गांव के लोगों, मिलने वालों और परिचितों को मांडा कर खाना खिलाते थे, लेकिन अब शादी वाले दिन ही सभी को खाना खिलाकर शादी के सभी कामों को एक ही दिन में निपटा देते हैं।
महंगाई सबसे बड़ा कारण आरके कॉलोनी जैन मंदिर से जुड़ी अनिता ने बताया कि शादी कार्यक्रमों को सीमित दिनों में करने का एक प्रमुख कारण बढ़ती महंगाई है। मैरिज होम, कैटरिंग, हलवाई, डेकोरेशन, वेटर इत्यादि में लाखों रुपए खर्च हो जाते हैं। ऐसे में एक ही दिन में शादी के काम निपटाना लोगों की मजबूरी बन गई है। राधादेवी ने बताया कि आजकल नई पीढ़ी पुराने रीति-रिवाज, परम्पराओं व संस्कृति भूल रहे हैं। उनके पास शादी की रस्मों को ज्यादा दिनों तक चलाने का समय नहीं है।रिंग सेरेमनी, फोटो शूट, महिला संगीत आदि पर समय और पैसा खर्च कर रहे हैं। पहले हल्दी रस्म परिवार व गली मोहल्लों की महिलाओं के गीतों के साथ देशी अंदाज में होती थी। अब हल्दी सेरेमनी ने विशेष स्थान ले लिया है और ड्रेस कोड के साथ आधुनिक संगीत ने इसकी जगह ले ली।